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कविवर ठक्कुरसी यौं ही करता कृपण..................."याकी । बोल न बोल्यो गयो सरण किकरण समझि ले सक्की । नाज".............."सयस धरा धरती छड्यो । गयो नरगि......."घट कृपणु सहा पंच परि दुख सहो । गाव में जेता नारी पुरिष भला हे मुदो समलाई को ।।३।।
मूवो कृपण कुमीच लोग सगलाह मनि भायो । रहयो राति घर माहि कोइ बालिवा म आयो। सब रानि हि जगह पीस पुर वाहिरि राल्यो। पूरा हुवा णी काठ रहित तई प्रघ बाल्यो । घर नारि पूत बंषच खिल्या मनि हरिष्यात जुयो जुवो । पहरिस्पा खाइस्या खरचस्या भलो हुवो जइह मुवी ।।३१॥
कृपण गयो मरि नरगि तिहां दुख सह्यो प्रलेखे । रोव करै कलाप कर्ण कहै इम प्रक्ख । पत्त जारी मू जोग गेगा इव निरभ पाउ । जिती करो धरि लछि तिती पुणि मागि लाकं । हसि पहि असुर कुमार ससु मुनिष अनम बूझे कहा । तु मनसि बनमि पहिसे नरगि दुखु दाहणु लामं जहां ॥३२॥
क
से पनु कूद्धि कपटि .. ...... परिपंच उपायो । न ते जो तप बिटु देव देहुरे लगायो । न ते करी गुर भगति न ते परिवार संतोष्यो। न ते मुषा भारिणजी ने तै पिरीजणु पेष्यो। न त कियो उपगारु अडि जो तू ने पाडो फिरौ । वो गवो पाप फल प्रापणो मत विलाप कारण करै ।।३३।।
एक तल तेल में एक अंगि सूली बाम । एक पाणी मै पेलि एक काटा सिरी स्वाग 1 इफ काट कर चरण एक गहि पांव पछाडे । एक नदी में छोड़ बहुडि साई खणि गाई । इकि छेद सीर सिलु तिनु करिविराज्यो मिलि। आइणि सागर बंध दुख भोगवै मरहण पूरि प्रायु विरण 147