Book Title: Kavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
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कविवर ठक्कुरसी
२८५
सप्त व्यसन षट्पद
पुहामि पट्टि मसि मेरु, होहि भायण सर सागर । पघस अनोपम लेखि, साख सुरतर गुण प्रागर । प्रापु इंदु करि लिहै, कहै फगि राउ सहस मुख । लिहइ घेवि सरसति लिहत पुरण रहा नहीं खुष । लेखणि मसि मही न उम्बरह, थक्कइ सरिसइ ईद फुणि ।
प्रायो नवोडु कहि ठकुरसी, सबइ जिणेसरि पास गुरिण ।।१।। जुपा खेसना
जूद जुवाख्या धणी लामु, मुरण किवाई नदीसह । मतिहीन मानई खेलि, मत पित्ति जगीसइ । मगु जागाइ दुखु सह्यो, पंच पंडव नरवइ जलि । रामरिधि परहरी, रमा सेविड जुवा फलि । इह विसन संगि कहि ठकुरसी, कवरणु न कवणु विगुत्त वसु । इन जाणि जके जूबा रमै, ते नर गिरिणवि सींगु पम् ।।२।।
मांस खाना
मुरिख मंस म भखह, तासु कारण किन गोवइ । जहि म्वाद कारण, काइ लषद मउ खोबड । फल प्रासस रस लुद्ध कूडू कीयो न मुणित मरिण । मान्मा उदर विदारि विष वा तापी इहलरिए । में गुण अनंत प्रामिष वहि कवि ठाकुर केता कहै । वगराउ अजज जंगलि मस्खणि नरइ मीच पण दुखु सह ।।३।।
मदिरा पान करना
मग्नु पिये गुण गलहि जीव जोगै ज्याख्यो भरिए । मशु पिये सम सरिस माइ महिला मण्णहि भरिण । मन्जु पिये बहु दुख सुखु सुरगहा मधुन इव । मज पिये जादव नरिद संकटु कवि गय खिव ।

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