Book Title: Kavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
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कविवर बूघराज एवं उनके समकालीन कवि
षण घम्म हाणि नरमह गमरमु कलह मूलु भवजस उपति । हारंति जनम हेलाइ मुगष, मज्जु पिये जे विकलमति ।।४।।
देण्यागमन
वेस्या वरिणयर चारुदत्त परमाणु परिखिउ । सुनया कोडि छत्तीस खद्ध तिन घडी न रखिज । प्रवर किता नर कह ज्याह दिट्ठउ दुखु दारण । गाह हरिवि कवि कालिदास मारिउ निको । तसु संग किये प्रतिषद बहि कुल कीरति छारह मिले । घनु जोचनु कीरति जाइ चलि ज्यों कायर दीठा किले ।।५।।
शिकार खेलना
पाधि पंचमु विसनु नरई पंचमि पहुचांवइ । जाणत: नर नीचु पेखि पसु मनह सिंहावइ । तिण चरनिरा पराधह सौ न नमनह विचारहि । तुरिय चढिवि वनिजाहि जीव जोवन मदि मारहि । सत्री प्रखत्र करि संग्रहहि पारघि पापु विसाहि बहु । ते सहहि दुखु कहि ठकुरसी ज्यौं धक्कवह सुर्वमु पहु ।।६।।
चोरी करना
चोरी करि सिवभूति बिधु संसारि विगुत्तउ । तिरिण उण्ड तिनि सहिय पुरावि मरि नरयह पतउ । पवर किता नर सहहि दुखु दारण चोरी संगि । इम जारिणवि परहरहु जिन रुलाया अवगुण अंगि । जपूतपु सनान संजमु सुकतु कल कीरति तीरथ परम् । तज सहल सबे कहि ठकुरसी जई न फुरद चोरी करम् ।।७।।
परस्त्री सेवन
परतीय परत विणासु सरव दुख दावा इह मवि । जातउ मा बंधु लोउ परहरा तवा नदि । प्रमट सुणो ससारि कपा कीचक्र अरु दहमुख । सीय दोव६ कारणइ जेम भुजिय दह दुख ,

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