Book Title: Kavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
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२७४
कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि झूठी बोले साखि झूठे झगडे नित उपाय। महि तहि बात विसासि धूति धनु घर महि ल्याव । लोभ को लियो घेते न चिति जो कहिजे सोइ स्ववै । धन काजि झूठ बोल कृपणु मनुष जनम लाधो गर्व ।।५।। कदेन खाइ तंबोलु सरसु भोजन नहीं भक्दै । कदेन काप नवा पहिरि कापा सुख रक्खे । कदेन 'सिर में तेल मल मूरख म्हावं । कक्षेन चन्दन का अंग वीस या पेषगो कदे खं नहीं श्रवणु न सुहाए गीत रसु । घर घरणी कहे इम कंतस्यौ दई काइ दीन्हो न पसु ॥६।।
सिरि बांध चीचरी रहइ तलि किए न गोटो । अंग उघाडी दुवै भगो पहरो गलि छोटो । पडहि जून सैवार कदे कापडा न धोये । हाय पाग सैर को मेनु मलि मुलिन न खोवे । पहरि वाया णीयर चरण तशी नीसत नहि उर्दु । रलायो सरि सरि तहि नणी गुण पढी कृपण पण दूबली ।।७।।
ज्यो देख पहरंत खंत खरचंस मवर नर । बैठा सभा मझारि जाणि हासंति कुसम सर । देखि देख तह भोगु कृपण तिय कहे विचारी । ज्याहू, तणी एकंत पुणि पूरी तेगारीमइ । पुष्ब पाप कृत आपण कंतु कुमारण सभरि लक्षो। इकु कृपणु अरु करुषु कुपोलणो लाज मरो लक्खरण रह्यो ।।८।। ज्यो देखे देहुरे त्याह को वर नारी । तलि पहऱ्या' पटकूला सब सोचन सिंगारी। एकि करावं पूज एकि ऊर्चा गुण गावं । एक वेहि तिय दाणु एक शुभ भावन भावे । तिह देखि भरणे हीयो हरणे कवण पायु दीयो दई । जहि पाप किणहो पापीणी कृपणुकत थरि घरण हुई ॥६॥ मैं कुदेव पूया कैरू जिप चलण नवाया। के में पेष्या कुगुर साधु गुरु साति निद्यो ।

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