Book Title: Kavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 280
________________ कविवर ठक्कुरसी २६५ किकि दिठि देखण को भाऊ, सिसु तजि जे पलियु विलाऊ । कवि कहइ सुतिय घण घणु, जसु परणई एह मवरण । इणि परितिय भरणेषक पयाग, बहु करिद्धिति काम विकारा । जिणु तव इन दिठि ३ बोले, ना मेरू पवन मै डोले । अव रेया नर नारे, रंगि रमाहिति बनह मझारे । वनि रमत हुवो अमु काया, अलि न्हाणि सरोवर माया । जस माह के लि की जैसी, कवि सकह कवरण कहि तैसी। दोहा जल विनोद करि नोसरचा, मन हरषी नरमारि । पहिरि वस्त्र पारभरण अंगि, प्रावहि नगर मझारि ॥शा सिबदे रूपिरिणस्यौ नहीं कहा रहो मुहु मोहि । नेमि कुवर कपहरणी, दैने बहु निचोहि ॥६॥ देने बहु निचोडे, तिन उत्तर दियो बहो । जो सारगु धाबदार्थ, ल संपु पंचावरण पावै । चडि नाग सेज जो सोवे, रूपिणि तसु वस्त्र निचो। सुणि ससिभामा कर जोडे, ले दोनो वस्तु निचोडे । तव सियदे तणई कुमारे, मनि निमष घड्यो महंकारे । वरजंता सहि रखवाला, प्रभु ऐठौं बाइधु सासा। भनि गिराईन क्यों रंगि रुती, चढि नाग सेज सिरि सूतौ । चरणांगुलि घणकु चढायो, नासिका संखु धरि वायो। सुरिण सवदु संस्खु जण कंम्मी, इह कहा हुवउ इम बंप्यो। सुरिण संख सबद हरि डोल्यो, बलिभद्र इम बोल्यो। महो माई विण ठौकाजो, पदि तदि यह लेसी राजो। को मोटो मंत्र उपाये, तपु ले घरि तजि वन जाये। तय कुडइ भनि ललियंगी, पायो उमसेशि चिय मंगी ।। वोहडा सुरनर जादा मिलि बल्या हाण नेमिकुमारि । पसु दीया गुवाडा भर्या, बंच्या ससुर दुवारि ॥७॥ हरण रोझ सूबर सुसा पुक्कारहिं सुइ चाहि । नेम कुभर र राषि करि, बूमो हाल यहि ॥६॥

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