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कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
ज्यो देखे देवरं त्याह की वर नारी | तलि पहरचा पटकुला सव्य सोबन सिंगारी । एकिक पूज एक उभी गुण गावै ।
एक देहि तिथ दार एक शुभ भावन भाव ।
तिहि देखि भरणं हीयो हमें कवणु पापु दीयो दई ।
जहि पाप किए हो पापीग्रो कुपणु कंत घरि च हुई ॥६॥
एक दिन कृपण की पत्नी ने सुना कि गिरवार की यात्रा करने संघ जा रहा है तो उसने रात्रि में हाथ जोड़कर हँसते हुए पति से यात्रा संघ का उल्लेख किया और कहा कि लोग उसी गिरनार की यात्रा करने जा रहे हैं जहाँ नेमिनाथ ने राजुल को छोड़ दिया था और तपस्या की थी। वहाँ पर्वत चढ़ेंगे, पूजा-पाठ करेंगे तथा पशु एवं नरक गति के बंध से मुक्त होंगे । इसलिए हम दोनों को भी चलना चाहिए । इतना सुनते ही कृपण के ललाट पर सलवटें पड़ गयी और वह बोला कि क्या तू बावली हो गई है जो घन खरचने की तेरी बुद्धि हुई है । मैंने अपना धन न चोरी से कमाया है और न मुझे पड़ा हुया मिला है। दिन रात भूखा प्यासा मर कर उसे प्राप्त किया है। इसलिए भविष्य में उसे खरचने की कभी बात मत करना |
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सीसि सलवदि त्रण यल्ली ।
कि
नारि वचन सुणि कृपणि, कि तू हुई धण बावली, धरा थारी मति चल्ली । मैध लढ न पडयो, मै र धणु लियो न चोरी | मै धणु राजु फभाई श्रापु भाणियों ना जोरी / दिन राति नींद विरु भूख सहि, मंर उपाय दुख घणो ।
खरचि ना तो वाहुडि, वचनु धण तू आगं मत भणो ॥ १४ ॥
कूपस्य की पत्नी भी बड़ी विदुषी थी इसलिए उसने कहा कि नाथ, लक्ष्मी तो बिजली के समान चंचल है। जिसके पास टूट धन एवं नवनिधि थी वह भी साथ नहीं गयी। जिन्होंने केवल उसका संचय ही किया वे तो हार गये और जिन्होंने उसको खर्च किया उनका जीवन सफल हो गया । इसलिए यह यात्रा का अवसर नहीं चूकना चाहिए और कठोर मन करके यात्रा करनी चाहिए। क्योंकि न जाने किन शुभ परिणामों से अनन्त घन मिल जावे। इसके बाद पति पत्नी में खूब बादविवाद छिड़ जाता है । पत्नी कहती है कि सूम का कोई नाम ही नहीं लेता जब कि राजा करणं, भोज एवं विक्रमादित्य के सभी नाम वह नर धन्य है जिसने अपने घन का सदुपयोग पुण्य कार्यों की तो अवश्य होड़ करनी चाहिए |
लेते हैं। बह फिर कहने लगी कि किया है। पाप की होड़ न करके पुण्य कार्य में धन लगाना अच्छी