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कविवर बूच राज एवं उनके समकालीन कवि
दान दिये गये । बाजे बजे तथा लोगों में खूब पैसा कमाया। कृपण ने यह सब सुना तो उसे बहुत दुःस्त्र हुमा।
कुछ समय पश्चात् वह बीमार पड़ गया । उसका पन्त समय समझ फर उसके परिवार वालों ने उसे थान पुण्य करने के लिए बहुत समझाया लेकिन उसके कुछ भी समझ में नहीं आया। उसने कहा कि चाहे वह मरे था जोये ज्यौनार कभी नहीं देगा । उसका धन कोन ले सकता है। उसने बड़े यस्ल से उसे कमाया है । प्रब वह मृत्यु के सम्मुख है इसलिए हे लक्ष्मी तू उसके साथ चल । लक्ष्मी ने इसका उत्तर निम्न प्रकार दिया
लन्छि कहे रे कृपण झूठ हो कद न बोलो । शु को चलण दुइ देह गलत मारगी तसु चालों । प्रथम चलण मुझ एड्छ देव देहुरे ठविज्जे । दूजे जात पति? दाणु घाउसंघहि दिने । ये चलण दुवै त भजिया ताहि विहणी क्यों चली। भूख मारि जाय तू ही रही बहडि न सगि वारे चलो ।।२८||
लक्ष्मी ने कहा कि उसकी दो बाते हैं। एक तो वह देव मन्दिरों में रहती है। दूसरे यात्रा, प्रतिष्ठा, दान और चतुविध संघ के पोषणादि कार्य हैं जनमें तुने एक भी नहीं किया । अतः वह कृपण के साथ नहीं जा सकती ।
कुछ समय पश्चात् कृपण मर गया पोर मर कर नरक ८ गया। वहां उसे अनेक प्रकार के दुख सहन करने पड़े। इसलिए कवि ने निम्न निष्कर्ष के साथ कृपण छन्द की समाप्ति की है
इसौ जाणि सह कोई, मरइण पूरिष धनु संन्यो । दान पुण्य उपगार दित धनु कि वे न खत्री। दान पुजे वह रासो असो पौष पाचं जगि जाणे । जिसड कपरणु इकु दानु तिसउ गुण कसु बखाण्यौ । कवि कह ठकुरसी घल्ह तरणु, मै परमत्थु विचार्यो ।
परशियो त्यहि उपज्यो जनमु ज्या पाच्यो तिह हारियो ।।३।। प्रस्तुन पाण्डुलिपि में ३५ छन्द हैं।