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कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
११. सप्त व्यसन षट्पद
कविवर ठक्कुरसी की जिन ६ कृतियों की प्रथम बार उपलब्धि हुई है उनमें "सप्त ध्यसन षट्पद" प्रमुख कृति है। जिस प्रकार कवि ने पञ्चेन्द्रिय वेलि में पांच इन्द्रियों की प्रबलता, तथा उनके दमन पर जोर दिया गया है उसी प्रकार सप्त व्यसनों में पड़कर यह मानव किस प्रकार प्रपना रहित स्वयं ही कर बैठता है। व्यसन सास प्रकार के है जुवा खेलना, मांस खाना, मदिरा पीना, वेश्यागमन करना, शिकार खेलना, चोरी करना और परस्त्री सेवन करना । ये सातों ही आसन हेय हैं, त्याज्य हैं तथा भानव जीवन का विनाश करने वाले है।
पार वन्दना के साथ षट्पद को प्रारम्भ किया है। कवि ने कहा है कि पार्श्व प्रभु के गुणों का तो स्वयं इन्द्र भी वगन करने में अब समर्थ नहीं है तो वह अस्प बुद्धि उनके गुणों का कमे वर्णन कर सकता है। कवि ने बड़ी ओजपूर्ण भाषा में अपनी लघुसा प्रकट की है
पुहमि पट्टि मसि मेरु होहि भायण खर सागर । अषस मनोपम लेखि साख सुरतर गुण प्रागर । आपु दु करि लिहै, कह फणिराउ सहसमुख । लिहइ देवि सरसति लिहत पुरणु रहाई नही धुप । लेखरिण मसि मही न जश्वरइ, थक्कइ सरसइ इंच पूरिख । आयो नयोछु कहि ठकुरसी तवा जिरोसर पास गुणि ॥१॥
जुभा खेलना प्रथम ब्यसन है । जुमा खेलने में किश्चित् भी लाभ नहीं है। संसार जानता है कि पांचों पाण्डवों एवं नल राजा को जुमा खेलने के क्या फल भुगतने पड़े थे। उन्हें राज्य सम्पवा छोड़ने के साथ-साथ युद्ध का भी सामना करना पड़ा था। ध्रत क्रीड़ा करने से अनेक दुःख सहन करने पड़ते हैं । इसलिए जो मनुष्य प्रत क्रीड़ा के अवगुण जानते हुए भी इसे खेलता है वह तो बिना सींग के पशु है।
सूब जुवाख्यो घणो लामु मुख किवई' न दीसइ । मतिहीणा मानइ लि मति चित्ति जगीस। जगु जाणइ दुखु सह्यो पंच पंडव नरवइ नलि । राज रिषि परहरी र सेविउ जूवा फलि । इह विसन संगि कहि ठकुरसी, फवणु न कवरण विगुत, बसु । इव जाणि जके जूवा रमते नर गिणिविण सीगु पसु ॥१॥