Book Title: Kavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 266
________________ कविवर ठक्कुरसी २५१ बात है । जिसने केवल धन का संचय ही किया पोर उसे स्व पर उपकार में नहीं लगाया वह तो अचेतन के समान है तथा सर्प के डसे हुए के समान है। पत्नी की बात सुनकर कृपण गुस्से में भर गया और उठ कर बाहर चला गया । बाहर जाने पर उसे उसका एक कृपण ही साथी मिल गया । साथी ने जम उसकी उदासी का कारण पूछा और कहने लगा कि क्या तुम्हारा धन राजा ने छीन लिया या घर में कोई चोर आ गया अथवा घर में कोई पाहुना प्रा गया या पल्लो ने सरस भोजन बनाया है। किल कारागुम्बा दिखता है। तबहि कृपण करि रोस, ससि घर वाहिरि चलीयो। ताम एकु सामहो मंतु पूरवलो मिलियो । कृपण कहे रे कृपण प्राजि तू दमण दिठो । कि तु रावलि गह्यो केम घरि घोर पइट्ठ। । प्राईयउ कि को घरि पाहुणो कीयो नर भोजन सरसि । किरिण काजि मीत रे प्राजिउ सु, मुख विनाण दीठो । कृषण ने कहा कि मित्र मुझे घर में पत्नी सताती है । यात्रा जाने के लिए घन खरचने के लिए कहती है जो मुझे अच्छी नहीं लगती। इसी कारण वह दुर्बल हो गया है और रात दिन भूख भी नहीं लगती। मेरा तो मरण भा गया । तुम्हारे सामने सब कुछ भेद की बात रस्त्र दी। उम दूसरे कृवरण मित्र ने कहा कि है कृपण तू मन में दुख न कर । पापिनी को पीहर भेज दे जिससे तुझे कुछ सुख मिले । कृपरा कहै रे मंत मुझ घरि नारी सतावे । जाति चालि धन खरीषु कहै जो मोहि न भावे। तिह कारणि दुष्कल रयत दिण भषण ण लगा। मंतु मरण पाइयो गुह्य प्रख्यो तू आगं । ता कृपणु कहै रे कृषण सुणी मीत मरण न माहि दुनु । पीहरि पठाइ वे पापिणी ज्या को दिणु तू होइ सुख ।।२०।1 इसके पश्चात् उस कृपण ने एक प्रादमी को बुलाया तथा एक झटा पत्र लिख दिया कि लेरे जेठे भाई के पुत्र हुआ हे प्रतः उसे बुलाया है । परनी पति के प्रपंच को जानते हुए भी पीहर चली गयी । कुछ महीनों पश्चात् यात्रा संघ वापिस लौट प्राया । इस खुशी में जगह-जगह ज्योनारें दी गयी, महोत्सव किये गये। जगह-जगह पूजा पाठ होने लगे। विविष

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