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कविवर ठक्कुरसी
सारे नगर के निवासी इस जोड़ी को देखकर प्राश्चर्य में भर जाते थे क्योंकि स्त्री जितनी दानी, धर्मात्मा एवं विनयी थी उसका पति जतना हो कंजूस था। न स्वयं खर्च करता था और न अपनी पत्नी को खर्च करने देता था । इसी को लेकर दोनों में कलह होता रहता था । वह कृपण न गोठ करता, न मन्दिर जाता, यदि कोई उससे उभर मांगने आता तो वह गाली से बात करता, यही नहीं अपनी बहन, भुवा एवं भागाजियों को भी अपने घर पर नहीं बुलाता था। यदि कोई घर में बिना बुलाये ही प्रा जाता तो मुह छिपा कर बैठ जाता पा ।
घर में प्रांगण पर ही सो जाता । खटिया तो उसके घर पर थी ही नहीं तथा जो पी उसे भी बेच दी । घर पर छान बांध लो । जब पांधी चलती तो उसकी बड़ी दुर्दशा होती। वह सबसे पहिले उठता और दस कोस तक नंगे पांव ही धूम पाता । न स्वयं खाता और ने अपने पन्धिार वालों को साने देता । दिन भर झूठ बोलता रहता और झूठ लिखता, महता पोर झठी कमाई करता। अपनी इस पावत के कारण वह नगर में प्रसिद्ध था। नगर का राजा भी उसकी आदतों को जानता था।
यह पान कभी नहीं खाना पोर न ही किसी को लिलाता था । न कभी सरस भोजन करता । न कभी नवीन कपड़े पहन कर शरीर को संवारता था । वह कभी सिर में तेल भी नहीं डालता पोर न मल-मल कर नहाता था । सेल तमाने में तो कभी जाता ही नहीं था।
फदे न खाइ संबोल, सरसु भोजन नहीं भवखे । कदे न कपड़ा नरा पहिरि, काया मुख रकने । कदे न सिर में तेल हालि, मल मल कर न्हाव । फदे ने चन्दन परवं, अंग अबीर लगाव ।
पेषणो कदे देखे नहीं, श्रवण न सुहाई गीत रस ।।६।। उसकी पत्नी जब नगर की दूसरी स्त्रियों को अच्छा खाते-पीसे, अबढ़े वस्त्र पहिनते तथा पूजा-पाठ करते देखती तो वह अपने पति से भी वैसा ही करने को महती। इस पर दोनों में कलह हो जाती। इस पर वह अपने भाग्य को कोसती भोर पूर्व जन्म में किये हुए पापों को याद करती जिसके कारण उसे ऐसा कुपण पति मिला । यह याद करती कि क्या उसने कुदेव की पूजा की, पपया गुरु एवं साधुनों की निन्दा की, क्या झूट बोली या रात्रि में जोजन किया प्रथवा दया धर्म का पालन नहीं किया जो ऐसे कृपण पति से पाला पड़ा । ओ न स्वयं वरचे और न उसे ही खरचने दे।