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कविवर बूच राज एवं उनके समकालीन कवि
इक सोरण फूली फूल वादि, पेषत्त होइ महा तपु वादि । जहि निवसत मूसै मन चारु, नास तपो तनी तप घोर ॥५६॥ अहि वन गन गंधर्व निवास, विससहि सुर कामिनि रस वासु । निवसत होइ सील की हानि, मुनि वरु छाडि चल्यो मन बानि ॥६॥
श्मशान का दृश्य
संग सहित मुनि गयौ मसान, मरे लोग उहिहि जहि बान । मुड रुंड दीसहि बहू परे, कृमि की लालवि गधि घृण भरे ॥६॥ जंबुकसान गघि अरु काम, ध्यंतर मूत अपरिहा लाग । डाइनि पिवहि मथिरु भरि चूरू, सूकै तर हि वास उह ।।६२।। चिता बहुत पजलाह बी पास. घुमानलु भाम रह्यो पकास । नयननु देषत फट हियो, वैवस भवनु जनक विहि कियो ।।६३॥ तहि ठा पेषि परासगु ठानु, संघ सहित मुनि हान""" अनुवयध्यर तामु के सम, चंपक्त. सुम सम कोमल अंग ।। ६४॥ सिनहि सकोसल मुनिवर प्रानि, पभम्पो सुगुरु सरस रस वानि ।
निसुनि अभयरुचि नाम कुमार, लेह भोजु तुम नयरि मझार ॥६५॥ अहिन भाई द्वारा नगर में भिक्षा के लिए जामा
बालक तुम जो करहू उपासु, आरति उपजि होइ तप नासु । सुनि गुरु बयनु कहिनि मरू वीरु, चंद्र बदन सम कनक सरीम् ।।६६।। लेकर पुत्र चसे निरगंध, कुमर कुमारि मगर को पंथ । तहि अवसर जन राजा तने, टूनुस फिर जुवल बन घने ।।६७।। देवी बलि कारण भातुरे, दोऊ दृष्टि तासु को परे । पभन्यो कूकि सफनु भयो कायु, ए बलि पूजा दीये प्राइ॥६८।। लषरण बत्तीस कनक सम देह, पकरि चले देवी के गेह । जनौ रविचंद्र, राह पाकर्यो, अनी कुरंगु केसरि बसपर्यो ।।६६।।
चिन्तन
संजम कर शील निरमले, तिनहि परि जब किंकर चले । ता मन चित अभकुमार, जीवनु मरनु जासु एक सारु ।।७०॥