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कविवर चूचराज .
इसके साथ ही तीन अन्य कषायों का प्रादुर्भाव होता है। जैसे सर्प के गले में गरल विष संयुक्त होता है उसी प्रकार राग एवं हम दोनों ही लोभ के पुत्र है। जो राग सरल स्वभावी एवं द्वेष वक्र स्वभावी होता है। लोभ के इन दोनों पुत्रों ने सभी प्राणियों को अपने वशीभूत कर रखा है फिर चाहे वह योगी हो अथवा यति एवं मुनि हो । भगवान महावीर गौतम ऋषि से कहते हैं कि प्राणी को चारों गप्ति में डुलाने वाला यह लोभ ही है, इसलिए लोभ से बुरा कोई विकार नहीं है।
गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से फिर प्रश्न किया कि लोभ पर किस प्रकार विजय प्राप्त की जा सकती है तथा किस महापुरुष ने लोभ पर विजय पायी है । इस प्रकार भगवान महावीर ने निम्न प्रकार कहा
सुबह गोइम कहा जिणगाव यहु लासरणु धिम्मलइ, सुणतं धम्भु भव बंध तुट्टहि अति सूषिम भेद सुरिण, मान सदेह खिरण माहि मिट्टहि । काल प्रतिहि ज्ञान यहि कहियस प्रादि प्रनादि ।
लोमु दुसह इव अिप्तियइ संतोषह परसादि ॥४८।। लेकिन गौतम ने भगवान से फिर निवेदन किया कि संतोष कसे पैदा हो, उसके रहने का स्थान कौन सा है। किसके साथ होने से उसमें शक्ति पाती है। उसकी कौन-कौन सी सेना दल है तथा संतोष सुभट कैसा है | जब तक ये सत्र मालुम नहीं होगा लोभ पर विजय प्राप्त करना सम्भव नहीं है।
महावीर स्वामी ने कहा कि प्रात्मा में संतोष स्वाभाविक रूप से पैदा होता है तथा वह आत्मपुरी में ही रहता है । धर्म की सेना ही उसका बल है। ज्ञान रूपी बुद्धि से उस पर विजय प्राप्त की जा सकती है। जिस प्राणि ने संतोष को अपने में उतार लिमा बस समझलो कि उसने जगत को ही जीत लिया। जिसके जितना अधिक संतोष होगा उसको उतना ही मुम्न प्राप्त हो सकेगा। संतोषी प्राणी में राम द्वेष की प्रवृत्ति नहीं होती तथा वह शत्रु मित्र में समान भाव रखने वाला होता है । जिनके हृदय में संतोष है उनकी बुद्धि चन्द्र कला के समान होती है तथा उनका हृदय कमल खिल जाता है । संतोष एक चिंतामणि रत्न हैं जिससे वित्त प्रसन्न रहता हैं। वह कामधेनु के समान सबको बाछित फल देता रहता है । जहाँ संतोष है वहाँ सब सुख विद्यमान हैं । संतोष से उत्तम ध्यान होता है, परिणामों में सरलता प्राती है । वांछित सुखों को प्राप्ति होती है। संतोष से संबर तत्व की प्राप्ति होती है जिसके सहारे संसार को पार किया जा सकता है और अन्त में निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है।