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छीहल
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पांचवी विरहिणी मुनारिन थी। वह तो विरह रूपी समुद्र में इतनी डूब गई थी कि उसका थाह पाना ही वहिन था ! उसके रंगों को गरम पी सुनार ने हृदय रूपी अंगीठी पर जला जलाकर कोयला कर दिया था। उसके बिरह ने तो उसका रूप ही चुरा लिया जिससे उसका सारा शरीर सूना हो गया ।
हूँ तउ वूडी विरह मह, पाउ' नाहीं थाह ।।४५॥ हीया अंगीठी मसि जिय, मदन सूनार प्रभंग ।
कोसला कीया देह का मिल्या सवेह सुहाग ||४६।। इस प्रकार पांचों विरहिणी स्त्रियों से छोहल कवि ने जब उनके विरह दुःख का वर्णन सुना तो संभवतः वे भी दुःखी हो गये। मन्त में कवि को भी कहना पड़ा कि विरहावस्था ही दुःखावस्था है । जिसमें पल भर को सुख नहीं मिलता ।
छोहल धयरी विरह की बडी न पाया सुख । हम पंचइ तुम्हस कहा, अपना अपना दुःख ।।५।।
कुछ दिनों पश्चात् फिर ये पांचों मिली। वर्षा ऋतु प्रारम्भ होने के साथसाथ उनके पति भी परदेस से वापिस आ गये थे । इसलिए वे हंसने लगीं, गाने लगीं। उस दिन वे पूरे शृंगार में धीं 1 छीहल ने जब उन्हें हंसते हुए देखा तो उन्होंने फिर उन स्त्रियों से पूछा --
विहसी गावहि रहिसमू कीया सइ सिंगार । तब उन पंच सहेलिया, पूछी दुजी बार ॥५४॥ मइ तुम्ह ग्रामन दुमनी देवी थी उत्तबार ।
अब हू देखू विहसती, मोसत कह उ विचार ।।५।। उनका साई प्रा गया था । वियोगिन बसन्त ऋतु जा चुकी थी। मिलन की वर्षा ऋतु आ गई थी । मालिन के सुन्न रूपी पुष्प को पति ने मधुकर बनकर सूब पो लिया था। तम्बोलिन ने चोली खोल कर अपार योवन भरी देह को निकाला और अपने पति के साथ बहुत प्रकार में रंग किया। प्रांखों से आंख मिली और अपूर्व सुख का अनुभव किया ।
मालिन का मुख फूल ज्यां बहत विगास करेइ । प्रेम सहित गुजार करि, पीय मभुकर सलेश ।।५८॥ चोली खोल तम्बोलनी कादया गात्र अपार । रंग कीमा बहु प्रीयसु, नयन मिलाई सार ॥५६।।