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बावनी
मी लंक पदमिणी, सेजि नहीं रमी सुरति रस अरियण सिवर धार, त्रास कीन्हे न अप्प बस ! सृज्जरा फ़ज्ज संसार दब्ब दोनों न सुपत्तह बोरे पण चहत, चाव पिष्षियों न चित्तह ।
कर्यो न सुकृत के करम मन, कलि अवसर छोहल्ल भनि । उद्यान afree fafe मालती, तिमि नर जनम प्रविधि गिनि ||३६||
निरमल चित्त पविप्त, सदा अच्छे उत्तम मति । जो उच्च बसइ कुठाइ, तासु नहि भिदे कुसंगति । तिह समीप सठ बहुत, मिलिब जो करइ कुलच्छण । सुभ सुभाव आपणो तक मुक्कड़ न विजच्छण । श्रीखंड संग जिम रयरिण दिन, अहि प्रसंधि बेयौ रहे । तषि सुबास सीतल मलय, विष न होय छील कहै ||२६||
टले न पुब्ब निबद्ध, मित्त मत दीनौ भवे । जब आयु घटे, पिनक तब कोइ न रा । विनय न करि धनकाज, मूढ जन जन के मार्ग | गुरूवत्तन मम हारि, लोभ लिषमी कै लागे । आवं अक्सर मनपार थी, जेम मीचु तिम जानि धन 1 खीहल्ल कहे द्रिढ संग्रहो, मान न मुक्कों निज रतन ||३०||
ठाकुर मित्त जु जाणि मूढ हरषद जे चित्त । निज तिय तगड विसास, करइ जिय महि जे मित्तह । सरप सुनार रू पारस रस के प्रीति लगाबहि | वेस्या अपणी आणि डयल के छन्द उछाह बिरवंत बार इन कहूं नहीं, मूरिख़ नर जे रूचिया | छोहल्ला कहर संसार मंहि ते नर अति विचिया ॥ ३१ ॥
डरइ दादुर सद्द, बांह घाले केहरि गलि । ase कुंड नीर तिरे नद जाइ अर्थामि जल । मरइ फूल के भार, सीस धरि पर्वत ढाल | कंपई कंदरि देखि, पकरि धरि कु जर राल |
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सदरी देखि संसदा, विषहर को बल वद ग्रहइ । छीहल सुकवि जंप दया, तिरिय चरित्र को नदि लहद्द ||३२||