________________
गारवदास
१६१
को हरिहरु संकर धरणेसु, के दीसे बिघाघर भेसु । मरु सरुगका एह कुमारि, सुरि नरि किन्तरि को उनहारि ।।६।। यह रंभा कि पुरंदरि सत्री, रोहिनि कप कवन विहि रचि । सीता तारकि मंदोदरी, को दमयन्ती जोवन भरी ।।६६)
प्रस्तुत काव्य में कितने ही ऐसे प्रसंग हैं जिनसे तत्कालीन सामाजिक एवं माथिक दशा का भी पता चलता है । उस समय जब बालक माद वर्ष का हो जाता या तो उसे पढ़ने के लिए चटशाला में भेज दिया करते थे । राजा यशोधर को भी उसी तरह पाठशाला भेजा गपा था। गुरु के पास पढ़ने जाने पर ची गुड़ के लड्डू बना कर बांदा करते थे तथा सरस्वती की विनयपूर्वक पूजा की जाती थी
पतन हेत सोप्यो चटसार, घिय गुरा लाड़ किये कसार । पूजि विनायगु जिन सरस्वती जासु पसाइ होइ बहुमती ।।१३।। भाउ भक्ति गुरु तनी पयामि, पाटी लिख लीनी ता पासि ।
पढ्यो तरकु व्याकरण पुराण, हय गय वाहन प्रावध ठान ।।१३२ राजा खुवासस्था पाते ही अपना राज्य अपने पुत्र को देकर स्वयं पात्मा साधना में लीन हो जाते थे । महाराजा यशोवर के पिता ने भी जब अपना एक श्वेत केश देखा तो उन्हें वैराग्य हो गया और राज्य कार्य अपने पुत्र को सौंप कर स्वयं तपस्या करने वन में चले गये।
मवर बहुत बैठे नरनाथ, पेष्यो मुह दर्पनु सं हाथ । अवलो एक कनेपुता केसु, मन वैराग्यो ताम नरेसु ॥१४॥ राउ असोधर थाप्यो राज, मापनु पत्यो परम तप काज ।
लोनो दीक्ष परम गुरु पास, तषु करि मुयो गयो सुर पास ।।१४४।।
पूरी कथा में कितनी बार उतार-चढ़ाव पाते हैं। प्रारम्भ में मरवानन्द के प्रवेश से नगर में हिंसा एवं बलि देने की प्रवृत्ति बढ़ती है तथा देवी देवतामों को प्रसन्न करके उनसे इच्छित वरदान मांगने की प्रवृत्ति की प्रोर हमारी कहानी प्रागे बढ़ती है । यह बलि पशु पक्षी तक ही सीमित नहीं रहती किन्तु अपने स्वार्थ पूति के लिए मानव युगल की भो बलि देने में तरस नहीं आता।
लेकिन जब अभयरुचि एवं प्रभयमति के रूप में मानव युगल देवी के मन्दिर में प्रवेश करते हैं तो कथा दुसरी मोर धूमने लगती है। उसका कारण बनता है राजा की उनके पूर्व जीवन को जानने की उत्सुकता । अभयरुचि बड़े शान्त भाव से अपने पूर्व भवों की कहानी कहने लगते हैं। राजा यशोधर के जीवन तक