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कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
प्रस्तुत काव्य की कथा बड़े रोचक ढंग से पागे बढ़ती है। पाठक बड़े धैर्य से उसे सुनते हैं । लेकिन महारानी प्रमिय देवी एवं कोढी का प्रेमालाप उन्हें उत्सुकता एवं प्राश्चर्य में डालने वाला सिद्ध होता है। नारी कहो तक गिर सकती है, बोखा दे सकती है और पति तक को विष दे सकती है, जैसी घटनाएँ एक के बाद एक घटती रहती है मोर पाठक आश्चर्यचकित होकर सुनता रहता है ।
यशोधर एवं चन्द्रमती के आगे की कहा, उनका कार विशेष. संसार के स्वरूप के साथ कर्मों की विचित्रता को बतलाने वाला है । यशोधर एवं चन्द्रमती सात भव तक एक दूसरे के प्राणों को लेने वाले बनते हैं । उनके सात भवों की कहानी को पाठक मानों पवास रोककर सुनता है और जब उसे अभ्यरुचि एवं श्रभयमति के रूप में पाता है तो उसे कुछ आश्वस्त होने का अवसर मिलता है। राजा मारित कभी भय विह्वल होता है तो कभी भयाक्रान्त होकर सभा स्थल से ही भागने का प्रयास करता है क्योंकि उसे ऐसा लगता है कि मानों वह उसी के जीवन की कहानी हो ।
काव्य का प्रन्त सुखान्त है। संकड़ों जीवों की बलि करने वाला स्वयं भैरवानन्द अपने पापों का प्रायश्चित करना चाहता है। और जब उसे अपनी माथु के २२ दिन ही क्षेष जान पड़ते हैं तो वह कठोर साधना में लीन हो जाता है और मर कर स्वर्ग प्राप्त करता है। इसी तरह राजा मारिदत्त भी सब कुछ छोड़कर प्रायश्वित के रूप में साधु मार्ग अपनाता है। यही नहीं स्वयं देवी को भी प्रवृत्ति बदल जाती है और वह हिंसा के स्थान पर अहिंसा का आश्रय लेती है । पहिले
उसका मन्दिर जहां रक्त एवं चिल्लाहट से जाता है। प्रभवरुचि अभयमति एवं भाषायें के अनुसार स्वगं लक्ष्मी प्राप्त करते हैं ।
युक्त या वहां सुदत सभी
हिंसा का साम्राज्य हो प्रपनी-अपनी तप साधना
इस प्रकार यशोधर चौपई एक ग्रतीव सजीव काव्य है जिसको प्रत्येक चौपाई एवं वोहा रोचकता को लिए हुए है। सचमुच १६ वीं शताब्धि के अन्तिम चरण में ऐसी सरस रचना हिन्दी साहित्य की प्रनुपम उपलब्धि है। क्योंकि यह वह समय था जब देश में सामान्यजन में भक्ति की ओर तथा अध्यात्म की प्रोर झुकाव हो रहा था। मुसलिम युग होने के कारण चारों घोर युद्ध एवं मारकाट मची रहती थी इसलिए मनुष्य को ऐसे काव्य पढ़कर कुछ सीखने को मिलता था ।
कवि ने काव्य समाप्ति पर निम्न मंगल कामना की है
सलु संघु वं सुख पूरु, जब लगि गंग जलधि ससि सूरु || ५३५ | ०