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मंगसिर पोष
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अघन पुषु प्रति सीत प्रपा, जादो विषु व्याप संसार | काम अगिनि च पर जलु, घर घर सुख करें सब कोई । तुम बिन हमहि कहा घर होइ, हिरदो कंप पात ज्यौं । निसि अंध्यारी परंतु तुना, काम लरि अति होइ अपार । यहु मनु तर पीच विना, सत्रु संसार करें प्रति भोग राजुल र करं प्रीय सोगु. नेमि कुंवर जिन चंदिहों ||३०||
माघ फाल्गुन
कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि
माघ पवनु फागुन रितु होइ, रितु वसंत खेल सब कोई । कंत सतंवर कामिनी, दिन दिन रागु करे असरें । संजोग सिंगारु बहुत विधि करे, फागुण फागु सुहावनी । सो सरिसु कर दिनु खेल गावहि गीत करे पिय मेलु । परि मेरि उासी, हॅत्र, सवनि सिर उई सहु । चोवा चन्दन अमर कपूरु. तिलकु करें कर सुन्दरी । घर घर बांधे बन्धन बार, पंच सबद बाजही अनि प्रार । पिय परिहसु राजुल करें, दिन दिन तुम्ह ही सारे कंत । राखि सके को हरा उड़ात, नेमि कुवर जिन वंदिनीं ॥ ३१ ॥
चैत्र वंशाख ---
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चेतु सुहाओ अरु वैशाख वनस्पती सब भई इलासु । भार अठारह मोरियों, सब फुले नन्दन वन फूल । वासु सुगंध भर रस भुमि, फलहिते अमृत फल घनं । वन कोयल कुह कह सुर करहि मह यह मोर सुहावने । विरहिनि म म्हारे कंत, पिय विनु जनमु अकारथ जंत । नि निरासी क्या गर्म, हमहि पिया जनि करहु निरास । बीसर रैनि सुम्हारी भास, नेमि कुंवर जिन बंदि हौं ||३२||
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जेठ भाषाठ
जेठु प्रषालु गरम रितु होइ नाम परे व्याप सब कोई तपा त तनुं प्रति तर्प, पेम अगिनि तन है सरी । लुवल हि र सघन परही सीतल जतन ते सयल करही । श्रीखंड घसि तनु मंडहि, प्ररु वीच गरम पमी जं देह ।