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कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि
अमर इक्क निसि अम, परौ पंकज के संपुटि । मन मंहि मई मास, रयणि षिण मांहि जाइ घटि । करि है जलज विकास, सूर परभाति उदय जब । मधुकर मन चितव, मुक्त ह है बन्धन तब । छीहल द्विरद ताही सम्म पार पत्तउ पाइन भरि । अलि कमल पत्र पुडइणि सहित, निमिष माहिौ गर्यो मसि ॥४३॥
मगि चलहु कुलहि, जेणि विकसै मुख सज्जन । होइ न जस की हारिण, पिष्षि करि हंसइ न दुज्जन । जप तप सजम नेम, धर्म प्राचार न मुक्कइ । परमपर निज एन. क्रिया प्रापती न चुक्कई । पर तरुणि पाप अपवाद परि दूरन्तर ही परिहरउ । मन वचन काय छील कई, पर उपकारहि चित परत ।१४४।।
जब लगि सस्वर राइ, फुल्लि करि फलिय विवह परि । तब लगि कंटक कोटि, रहै बहु दिसा येहि करि । पषी पासा लुद्ध, ब्रिष्ष तक्कवि जो भावद्ध । फस पुनि हश्य न बढे, छांछ विश्राम न पावाद । द्रोहल्ल कहे हो ग्रंब सुणि, यह अवगुण संपति थिय । तो सदा काल निरफल फलो, जिहि सुम्न छांह बिलंबिय ।।४५॥
रे रे दीपक नीच, लष्ष अवगुण तुझ अंगह । पत्तहि करइ कुपत्त, प्रकृति सुभाव मलिन रंगह । बत्तिय गुण निरदहण, तल सनेह घटायन । जिहि थानक तू हो, तिहां कालिमा लगावन । छीहल्ल कहै वासर समय, मान न लम्भ इक्क चुप । जो सहस किरण रवि अध्यवइ, तो जग जोव तुज्झ मुष ॥४६ ।।
लछण ससि कहं दीन्ह, कीन्ह यति पार उदधि जल । सफल एरण्ड धतुर मागवल्ली सो नीफल । परिमल बिग्णु सोवन, बास कस्तूरी विविध परि । गुरिगयत संपत्ति हीण, बहुत लच्छीय कूपण धरि ।
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मन