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६. गीत
राग सोरठा संसार छार विकार परहरि, सुमरि श्री जिण माण। रे जीव जगत सुपनो जाणि ॥१॥ एक रंक सारो सहर जाध्यो, सुतौ दम तलि आणि ! जाणिक कह भूगल पोढ्यो, छत्र पारी सोक । खवासी विजणा वहालि ढोले, सेक रही कहि खोखि । एक प्राणि रंभा पाव चुबै, वहौ विधि प्राव भेट । ए साही में जागि तो ठीकरी सिर हेठि 1 रे जीव अगत सुपनो जाण ॥२॥ एक बांझ के परि तुवर बागा, जाणिक जनम्यो बाल । बुलाइ पण्डित बुझ जोशी होसी वह भूपाल । मेरो पुत्र कुमाइसी त्रिया बहस बंधी प्रास । ए साही में जाणि देखे सौ नाखिया रानिसास । रे जीव जगत सुपनो जाण ।।३।। एक निरपन जान हुवो धनवंत सो भी गमी पूरि। प्रर्थ दर्व बहुभरमा भण्ड़ा बयु निधि बाँधी मास । एता में ही जागि देखे नहीं कोडी पासि । रे जीव जगत सुपनो जाम ॥४॥ एक मूरिख जाने हो पण्डित मुखा चारधी वेद । माग प्रागम सबही सुझयो तीन भवन सन मोखि । एता में ही जागि देखे तो नहीं आखिर रेव । रे जीव जगत सुपनो जाण ॥५।। संसार सुपनो सर्व जाण्यो जाण्या क म होइ। कहै छीहल सुमरि जीवडा जिरण भज्या चलो होइ।। रे जीव जगत सुपनो जाण ।।६।।
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१. गुटका संख्या , मात्र भण्डार वि. जैन मन्दिर गोधान जयपुर।