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४. वेलि गीत
रे मन काहे कू भूलि रहे विषया धन भारी । इह ममता मैं भूलि रहे मति कुणा तुहारी । मति कुण तुहारी देखी विषारी, प्रति प्रधिक दुख पावो । विस इक मृग तिसना जल देखत, वहुडि म प्यास बुझायो । गृह सरीर संपति सुत बंधी, एते मिरि किरि जाग्या । श्री जिणवर की सेव न कोधी, रे मन मूरिख ममारणा ॥१॥ बह जुरणी मैं भ्रमता माणस जन्म मु पायो । है। देवन कू दुर्लभ सो त वादि गवामी । कत बादि भवायो मुह सुढाले, काहे पाव परवाले। काय उलागि कारिणि कर थे, यंतामणि कांद रास । इक्कु जिनबर सेव बिना सब झूठा, ज्यो सुपना की माया। वृथा जन्म खाय माणस ज, बहुजूणी भाम भाया ।।२।। जतिम धम्म है जीव दया, सो दिनु करि गहिए । मरहंत ध्यानु धरिज्यो सत्त, संजमस्यो रहिये । रहिये संजमस्यो परधन पर रमणी पर निदा पर हरिये । पर उपमार सार है प्राणी, बहुत जतन स्यौं करिये। जब लग हंस अमित काया मैं, कुछ सुकृत उपायो भाछ । मति कालि तुहि मरती देला, हो हो धर्म सहाइ ॥३॥ कलि विष कोट विणासै. जिनवर नाम जु लीया । मै घट निर्मल नाही, का तपु तीरथ कीया । का सप तीरथ कीया, जै पर दोह न छाडे । लंपट इंद्री लघु मिथ्या प्रमु, जनमु प्रापरणी भांडे । छोहल कहै गुणो मन बोरे, सीख सीयाणी करिये । चितवत परम ब्रह्म के ताई, भव सायर कूतिरिये ॥४॥ ॥ इति वेलि मीत समाप्त ।।
000 १. कषण (ख प्रति) २. खिशु सुख (ख प्रसि) ३. प (म प्रति) ४. पृथा न खोइ जनम मारगस का (स प्रति) ५. ब्रह्म स्पो रहिये जिव भय दुतर तिरिये ( प्रसि)