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कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
मधु बिन्दु जु सुख संसारो, दुख बरणत लहु वनयारी। जीव जाणों पथिक समानो, अग्यान निवड उद्यानो । उद्यान घन अग्यान गिनिजे, जम भयानक कुंजरो । भव संभ का चारो गति हि अतिमि निरंदरो! अजिगर सु एह निगोद बोयम, भखत जगत न धापये । दं पक्ष उज्जजल किसन मूपक्र, प्रायु खिण खिण का पये ||||
संसार को यह व्यवहारो, चित्त घेत हु क्यों न गवारौ। मोह निद्रा में जे सूता, ते प्राणी अंति बिगता । प्राणी विगूसा बहुत ले जिनि, परम ब्रह्म विसारीयो । भ्रमि भूलि इंद्री तरी रसिनर, जनम वृथा गंगाइयो । बहुकाल जाना जोनि दुख, दीरव सह्या छोहल कहै । करि धर्म जिन भाषित जुगति स्यो, त्यों मुकति पदवी लहे ॥६॥
।। इति पंथी गीत समाप्ता ।।
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