________________
१४६
कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
संपत्ति ‘सांस सरीर, सदा नर नाहीं निसचल । पुराण पत्र पंतत खुद जल लव जिमि चंचल । इमि जानि जगत जातो, सकल चित चेती रे मूड नर । कवर जु तो छोहल कहर. दीजिए दाहिण उच्चकर ।।२३।। ग्यान जप्त सूकूलीण, पुरुष जो हो धनहीनां । विषम अवस्था पाइ, वयप नहीं भाष दीनां । नीच करम नहिं करइ, रोरु जो अधिक सतावइ 1 वरि मरिजो अंग दे, निमिष सो नाक न नावइ । छीहल कहै मृगपति सदा, - मृग प्रामिष्ष भषन करें | जो बहुत विवस संपण परे, तऊ न केहरि तृण वरं ॥२४॥ चत मास बनराइ, फलाह फुल्लहि तस्वर सहि । तो क्यों दोस बसन्त, पत्त होवद करीर नहु । दिवस उलूक ज्यु अंध, ततो रवि को नहिं अवगुण । चातक नीर न लहह, नस्थि दूषण बरसत पण । दुष सुष दईव जो निर्मयो, लिषि ललाटा सोइ सहइ । विषमाद न करि रे मूळ नर, कम बोष छीहल कहा ॥२५॥
छाया तरुवर पिष्पि, आइ वह दसै विहंगम । जब नगि फल सम्पन्न, रहैं तब लगि इक संगम । विहवसि परि अवध्य, पत्त फल झर निरन्तर । षिण इक तथ्य न रहइ, जांहि उडि दूर दिसंतर। छोहल कहै द्रम पंषि जिम, महि मित्त तण भव्य लगि । पर कज्ज न कोऊ वल्ल हो, मप सुवारय सयल जगि ।।२६।। जलज बीज जल मज्झि, तरूणि सप्पसि किहि कारण। मो मन इच्छा एह, अमरवल्ली विस्तारए । सु'दरि इहि संसार, किया कोइ किरत न जाणइ । जे गुण लषउ करोरि, सुतौ अवगुण करि मानद । प्रबला प्रयानि इक सिष सुनि, जो फुल्ल उल्लास भरी। छीहल कहे एक कमल, तब करि है तुम वदन सरि ॥२७॥
१. ता किम २. वरणतरपिसि