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कविवर बेचराज एवं उनके समकालीन कवि
दूसरी विरहिणी तम्बोलिन थी । वह पति के विरह में इतनी दुर्बल हो गयी थी कि घोली मात्र से ही पूरा शरीर उक जाता था। वह हाथ मरोड़ती, सिर धुनती पोर पुकारती । उसका कोमल शरीर जलता । मन में चिन्ता छाये रहती पौर प्रांखों से प्रश्न धारा कभी रुकती ही नहीं । जब से उसके पिया बिछुड़े तब से ही के गुल का सरोदर हरप माग--.
हाथ मरोरउ सिर घुन, किस सउ करू' पुकार । तन दाई मन कलमसइ, नयन न संडह धार ।।२५।। पान झडे सब सुख के, बेल गई तमि सुबिक । दूरि रति बसंत की, गया पियारा मुविक ॥२६।। हीयरा भीतर पइसि करि, विरह लगाइ मागि।
प्रीय पानी दिनि ना बुझवाइ, बलीसि सबली लागि ॥२७॥ छीपन मांखों में आंसू भर कर कहने लगी कि उसके विरह का दु:ख बही जानती है, दूसरा कोई नहीं जानता । तन रूपी कपड़े को दुख रूपी कतरनी से यह दर्जी (प्रियतम) एक साय तो काटता नहीं है और प्रतिदिन दह को काटता रहता है। विरह ने उसके शरीर को जला कर रख दिया है। उसका सारा रस जला कर उसको नीरस कर दिया है।
तन कपड़ा दुक्ख कतरनी दरजी बिरहा एह । पूरा ब्योंत न व्योतई. दिन दिम कारह देह ॥३२॥ दुःख का तागा वीटीया सार सुई कर लेइ । चीनजि बंघ पविफ्राम फरि, नान्हा बरवीया देई ।।३३।। विरहइ गोरी पति दही, देह मजीठ सुरंग ।
रस लिया प्रबटाइ कइ, बाकस कीया अंग ।।३४॥ चौथी कलालिन थी। वह कहने लगी कि उसका शरीर तो भट्टी की तरह जल रहा है । प्रांखों में से मांसू घरस रहे हैं जो मानों अर्क बन रहा है । उसका भरतार बिना प्रवगुन के ही उसको कस रहा है। एक तो फागुन का महिना फिर यौवनावस्था, लेकिन उसका प्रियतम इस समय बाहर गमा हुमा है इसलिए उसकी याद कर करके यह मर रही है।
मी तन माटी ज्यू तपा, नयन चुबह मद धारि । बिन ही प्रयगुन मुझ सू, कस्करि रहा भरतार ।।३।। माता योवन फाग रिति, परम पियारा दूरि । रली न पूजे जीव की, मरउ विसूरि विसूरि ।।४२।।