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कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि
दीसय योवन बालिया, रूप दीपती देह | मोस कहउ विचार, जाति तुम्हरी केह ॥१३॥
तर कमि सच प्राखीया, मीठा बोल प्रवार | ना वह मारी जाति की छील्स सुनहु विचार ।। १४ । मालन श्रर तंबोलनी, श्रीजी छीपनि नारि । चरबी जाति कलालनी, पंचमी सुनारि ।। १५ ।।
माति कही हम तम्ह सउ, अब सुनि दुख हमार | तुम्ह तउ सुगना आदमी, महउ विराणी सार ।। १६७
मालिन की विरह व्यथा-
पहिली बोली मालनी, बाइयोन छंडि कइ निस दिन बहर पवालज्यु, विरहउ माली दुक्ख का कमल बदन कुमलाईया, वा पीया र एक पिन,
मुहं कु दुख अनंत | चल्यु दिसाउरि कंत ॥ १७॥
तन तरवर फल लग्गीया, दुइ नारिंग रस पूरि । सूकन लागा विरह फल, सींचन हारा दूरि ||२०||
नयन नीर अपार । सुभर भरा किनार ।। १८ ।। सूकी सूख वनराई | वरस बरावरि जाइ ॥ १९ ॥
मन बाड़ी गुण फूलडा, प्रीय नित लेता बास ।
स ह यानकि रात दिन, पीइ विरह उदास ॥२१॥
चंपा के पंखडी, गुध्या नव सर हार ज हु पहिरज पीच विन लाइ अंग प्रगार ॥२२॥
तम्बोलिन की विरह व्यथा
मालनि अपना दुःख का विवरा कला विश्वार सब तू वेदन अपनी काखि तंबोलन नार ||२३||
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जी कहइ तंबोलनी, सुनि चतुराई बात । विरहइ मार्या पीव विन, चोली भीहरि गात ॥२४॥
हाथ मरोरख सिर बन्यु, किस स कह पोकार । जती राहा बालहा, करइ न हम विस भार ।। २५।।