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कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि
६. उदर गीत
७. येराग्य गीत १. पञ्च सहेली गीत
यह राजस्थानी भाषा की कृति है। डा. रामकुमार वर्मा ने इसके सम्बन्ध में लिखा है कि इसमें पाच तरुणी स्त्रियों ने मालिन, छीपन, सोनारिन, तम्बोलिन, प्रोषित पतिका नायिका के रूप में अपने प्रियतमों के विरह में, अपने करण आवेगों का वर्णन अपने पति के व्यवसाय से सम्बध बने वाली नम्तनों का उल्लेश पोट तत्सम्बन्धी उपमानों और कपकों के सहारे किया है। डा. शिवप्रसाद सिंह ने पञ्च सहेली को १६ वीं शती का अनुपम शृगार काव्य माना है। साथ में यह भी लिखा है कि इस प्रकार का विरद् वर्णन उपमानों की इतनी स्वाभाविकता और ताजगी मन्यत्र मिला दुर्लभ है ।"
पञ्च सहेली में पांच विभिन्न जाति की स्त्रियों के विरह की कहानी कही गई है । ये स्त्रियां किसी उच्च जाति की न होकर मालिन, तम्बोलिन, छीपन, कलालिन एवं सुनारिन हैं जिनके पति विदेश गये हुए हैं। उनके विरह में वे सभी स्त्रियां समान रूप से व्यथित हैं। कवि ने यह बतलाने का प्रयास किया है कि पति वियोग में प्रोषित पति का कितनी क्षीणकाम म्लान मुख हो जाती हैं । उनके प्रांखों में कज्जल, मुख में पान नहीं होता। गले में हार भी नहीं पहना जाता और केश भी सूखे-सूखे लगते हैं । वह हमेशा अनमनी रहती है । तथा लम्बे श्वास लेती है । उनके प्रघरोष्ठ सूख जाते हैं तथा मुख कुम्हला जाता है।
छीहल कवि जिस किसी नगर के रहने वाले थे, वह सुन्दर था तथा स्वर्गलोक के समान था । वहां विशाल महल थे। स्थान-स्थान पर सरोवर थे तथा कुए और बावड़ियों से युक्त था । नगर में सभी ३६ जातियां रहती थीं। लोगों में बहुत चतुरता थी। वे अनेक विद्यानों को जानते थे। तथा वे एक-दूसरे का सम्मान करते थे । नगर की स्त्रियां रूपवती एवं रंभा के समान लावण्यवती थी। नये नये घस्त्राभूषण पहिन कर वे सरोवर पर पानी भरने जाती थी। एक दिन इसी प्रकार नगर की कुछ ने बयोवना स्त्रिया वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर सीवर के पास पाईं। उस समय बसन्त था। इसलिए उनमें और भी मादकता थी । उनमें से कुछ गीत गा रही थीं। कुछ भूलना झूल रही थी तथा एक-दूसरे से हास परिहास कर रही
१. हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास - पृ० ४४८ । २. सूर पूर्व बज भाषा और उसका साहित्य-पृ० १७० ।