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कविवर बूचराज बहुत सुन्दर खण्डन किया है जो निम्न प्रकार है
चेतनु चेति न चालई, कहरत माने रोस ।
माये बोलत सो फिर, जहि लगावहि दोसु ।। चेयन सुणु ॥३८॥ चेतन षटस एवं अन्य विविध पकवानों से शरीर को प्रतिदिन सींचता रहता है तो फिर इन्द्रियों के वशीभुत चेतन से धर्म पर चलने की प्राशा कैसे की जा सकती है। खेत में जब समय पर बीज ही नहीं डाला जावेगा तो उसके उगने की भाशा भी कैसे की जा सकती है। वास्तव में देखा जाये तो यह चेतन अब २४ प्रकार के परिग्रह तज कर १५ प्रकार के योग धारण करता है लेकिन वह सब तो जड़ के सहारे से ही है । फिर उसकी निन्दा क्यों की जाधे। पुद्गल का विश्वास कर जो प्राणी मन में ही हो जाता है वह तो नेता ही मलति हो को समान है । यह मुख मानव मापने पापको जाग्रत नहीं करता है और विषयों में लुभाए रखसा है । वह तो अंधे पुरुष द्वारा बटने वाली उस जेवड़ी के समान है जिसको पीछे से बछड़े खाते रहते हैं।
मूरख मूलनु चेतई, लाहै रह्या लुभाइ ।
अंघा बाट जेवड़ी, पाछई बावा खाइ ।।५।। जड़ फिर चेतन को कहता है कि जिसने पांचों इन्द्रियों को वश में करके प्रात्मा के दर्शन किये हैं उसी ने निर्माण पद प्राप्त किया है तथा उसका फिर चतुर्गति में जन्म नहीं होता,
रंच इंदी दंडि करि, पापी भाप्पणु जोइ । जिउ पावहि निरवाण पदु, चौग जनमु न होइ
चेयन सुरण ।।४८|| जैसे काष्ठ में अग्नि, तिलों में तेल रहता है उसी प्रकार मनावि काल से चेतन और पुदगल की एकात्मकता रहती है । पुद्गल के उक्त कथन का चेतन निम्न प्रकार उत्तर देता है,
लैहि वसंदरु कछु तजि लेहि तेलु खलि राडि । चेतहि चेतनु मेलिय, पुद्गल परिहरि बालि ।।
__ चेतन गुण ॥५॥ मन का हठ सभी को पूरा करते हैं लेकिन चित्त को कोई भी वण में नहीं करता है क्योंकि सिखर के चढ़ने के पश्चात् घबराहट होने पर उसको दूर कैसे की जा सकती है
मन का हठ्ठ सवु कोइ करइ, चित्त वसि करइ न कोइ । चडि सिख रह जब खडे, तवरु विगुचणि होइ ।। चेमन मुगु ।।