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कविवर बूचराज
में नहीं फंसकर जिनेन्द्र देव का ध्यान करना चाहिए । इसमें कवि ने अपना नाम बचराज के स्थान पर 'वल्ह' विमा है । १३. गीत - (न जाणो तिसु वेल को ये चेतनु रह्या लभाई थे लाल)
इस गील की राग दी है। मह प्राणी किस कारण संसार में फंसा हुमा हे । इसका स्वयं वेतन को भी आश्चर्य होता है । इस जीव को कितनी ही बार शिक्षा दी जाय पर यह कभी मानता ही नहीं। अब तक वह न जाने कितनी बार शिक्षाएँ ले चुका है लेकिन उन्हें वह तत्काल भूल जाता है। यौवनावस्था में स्त्री सुखों में फंस जाता है तथा साथ ही मरना साथ ही मीना इस चाह में फंसा रहता है। अन्त में कवि कहता है कि इस मानव को इस माया जाल के सागर में से कैसे निकाला जावे यह सोचना चाहिए। १४. गीत-(वाले वलि वेह मावे मनु माया घुलि रासावे ।)
वाले वलि वेहु भावे रहइ पाऊ मादि माताये ।। प्रस्तुत गीत सूहड राग में निबद्ध है। इसमें ४ अन्तरे हैं। यह भी उपदेशा. स्मक गीत है जिसमें संसार का स्वरूप बताया गया है। पांचों इन्द्रियों द्वारा ठगा जाने पर और चारों गतियों में फिरने पर भी यह मानव जरा भी नहीं सम्भलता पौरा में कोई ला जाता है। १५. गीत-(ए मेरै अंगणे बाचं बाधा सोचवे को बल कलि पावा ।।
जिनेन्द्र की अष्टविध पूजा से भर के दुःख दूर हो जाते हैं। इसी भक्ति भावना के साथ इस गीत की रचना की गयी है। यह राग बिहागडा में निबद्ध है । जिसमें ४ अन्तरे हैं। प्रत्येक अन्तरा में ६ पंक्तियाँ हैं। १६. गीत-(संअमि प्रोटिंग ना चडे भए अनंत संसारि ।)
यह गीत आसावरी राग में है। प्रथम दोहा है। इस गीत में लिखा है कि सयम रूपी रथ नहीं चढ़ने के कारण मनन्त संसार में धूमना पड़ रहा है। यह प्राणी इस संसार में घूमते-घूमते थक गया है । किन्तु न धर्म सेवन किया और न सम्यकत्व की आराधना की । नरकों की घोर मातना सही, वहां शीत एवं उष्ण की बाधा सही, कुगुरु एवं कुदेव की सेवा की लेकिन सम्यकत्व भाव पैदा नहीं हुप्रा । इसलिए कवि जिनेन्द्र देव से प्रार्थना करता है कि उनके दर्शन से ही उसे सम्यक् मार्ग मिल जावे यही उसकी हार्दिक इच्छा है । १७. गीत-(नित्त नित्त नवसी देहड़ी नित नित श्रवइ कम्मु ।)