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कविवर बूचरज एवं उनके समकालीन कवि
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प्रस्तुत गीत में भी ४ भन्तरे हैं । गीत में कवि ने कहा है कि जीव को न तो बार-बार मनुष्य जीवन मिलता है और न अपनी इच्छानुसार भोग मिलते हैं इसलिए जब सफ यौवनावस्था है. वृद्धावस्था नहीं पाती है, देह को रोग नहीं सताते हैं तब तक उसे सम्भल जाना छाहिए।
राजद्वार पर लगी हुई झालरी रात्रि दिन यही शब्द सुनाती रहती है कि शुभ एवं अशुभ जैसे भी दिन इस मानव के निकल जाते हैं वे फिर कभी नहीं आते । इसलिए अब किञ्चित भी विलम्ब नहीं करके जीवन को संयमित बना लेना चाहिए। जिस प्रकार सर्वज्ञ देव ने कहा है। उसी प्रकार हमें जीवन में उसम धर्म का पालन करना चाहिए।
प्रस्तुत गीत शास्त्र भण्डार मन्दिर वधीचन्द जी, जयपुर के गुटका संख्या ६५१ में संग्रहीत है। १८. पव-ए मनुषि लियडा कवल विगम्सेवा ।
ए जिणु देखोयडा पाप एणस्सेवा ।। प्रस्तुत पद में भगवान महावीर के प्रागमन पर अपार हर्ष व्यक्त किया गया है। महाबीर के पधारने से पारौं मोर प्रसन्नता का वातावरण छा जाता है। उनके दर्शन मात्र से जीवन सफल हो जाता है तथा धर्म की भोर मन लगने लगता है । मालाकार भगवान के चरणों में विभिन्न पुष्पों से गुथी हुई माला अर्पण करता है । उनके चरणों में ध्यान ही मानव को जन्म मरण के बन्धनों से छुड़ाने वाला है।
प्रस्तुत पद बूदी के नागदी मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत गुटके के ५७-५८ पृष्ठ पर लिपिबद्ध है।
१६. धम्मो दुग्गय हरणो फरगो सह धम्मु मंगल मूल । __ जो भास्यो जिरग वीरो, सो धम्मो नरह पालेहु ॥१॥
भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्म दुर्गति को हरण करने वाला तथा मंगलीक फल का देने वाला है इसलिए मानव को उसी धर्म का पालन करना चाहिए ये ही भाव उक्त कुछ छन्दों में निबद्ध है । सभी छन्द प्रशुद्ध लिखे हुए है तथा लिपिकार स्वयं अनपढ़ सा मालूम देता है। फिर ये सभी इन्द तथा १८ वा संख्या वाला पद अभी तक प्रज्ञात था इसलिए इसका पाठ भी यहां दिया जा रहा है ।
प्रस्तत पद बूदी के नागदी मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत गुटके में विपिबद्ध है।