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कविवर बूचराज
करने के लिए विवेक से काम लिया जाना चाहिए। एक पोर मोह है जिसने प्रपा माया जाल से सारे जगत को फंसा रखा है और जो कोई इससे टक्कर लेना पाहत है उसे किसी न किसी की सहायता से वह गिरा देता है । वह नहीं चाहता कि मानय गुणों से पूर्ण रहे। सम्यवस्थी हो और व्रतों के धारक हो। विषेक का वर महान शत्रु है।
सत् असत् की यह लड़ाई यद्यपि माज की नहीं किन्तु युगों से चली आ रही है। कवि ने इस लोभ रूपी बुगई से बचने के लिए जो उपाय बतलाये हैं वे ओस प्रमाण पर प्राधारित है।
कवि की 'चेतन पुद्गल धमाल' तीसरी बड़ी रचना है। चेतन (जीव) और गाव (गड़) का सम्बन्ध भनादि काल से चला पा रहा है। जब तक यह वेतन बन्धन मुक्त नहीं हो जाता, अष्ट कर्मों से नहीं झुट जाता तथा मुक्ति पुरी का स्वामी नहीं बन जाता तब तक दोनों इसी प्रकार एक दूसरे से बंधे रहेंगे । कवि ने इसमें स्वतन्त्रता पूर्वक अपने विचारों को प्रस्तुत किया है। दोनों में (चेतन, पुद्गल) वादविवाद होता है एक दूसरे की ओर से वादी प्रतिवादी बन कर कमियों एवं दोषों को प्रस्तुत किया जाता है। सांसारिक बन्धन के लिए जब चेतन पुद्गल को उत्तरदायी ठहराता है। तो जड़ बन्धनों का उत्तरदायित्व पेतन पर डालकर दूर हो जाता है। पूरा वर्णन सजीव है। सूझबूझ से युक्त है तथा आध्यात्मिकता से अोतप्रोत है। कवि ने पूरे प्रसंग को सरल भाषा में प्रस्तुत किया है जिससे प्रत्येक पाठक उसके भावों को समझ सके । मात्मा को सचेत रहने तथा पुद्गल द्रव्यों के सेवन से दूर रहने पर कवि ने सुन्दर प्रकाश डाला है।
कबीर ने माया को जिस रूप में प्रस्तुत किया है वूचराज ने वैसा ही वर्णन पुद्गल का किया है । कबीर ने "माया, मोहनी जैसी मीठी खांड' कह कर माया की भर्त्सना की है। तो बुचराज ने पुद्गल पर विश्वास करने से छो कलंक लगता है उसकी पंक्तियाँ निम्न प्रकार है
इस जड तणा विसासु करि, जो मन भया निसंकु ।
काले पासि पट्टि यह, निश्च वडइ कलंकु ।। ४३।।
लेकिन जड़ तो शरीर भी हैं जिसमें यह चेतन निवास करता है। यदि शरीर नहीं हो तो चेतन कहाँ रहेगा। दोनों का आधार माय का सम्बन्ध हैं। उत्तर प्रत्युत्तर देने, एक दूसरे पर दोषारोपण करने तथा कहावतों के माध्यम से अपने मन्नम्य को प्रभावक गीति से प्रस्तुत करने में कवि ने बड़ी शालीनता में काव्य रचना की है। वाद-विवाद में कनि ने जड़ की भी रक्षा की है । बेसन पर दोषारोपण
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