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कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
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'मुवनकीलि को यशोगाथा गायी गयी है। भुवनकीति सकलकीर्ति के शिष्य थे जिनका भट्टारक काल संवत् १४९८ से संवत् १५३० तक का माना जाता है। भुवनकीति अपने समय के बड़े भारी यशस्वी भट्टारक थे। भ. सकल कीर्ति के पश्चात् इन्होंने देश में भट्टारक परम्परा की गहरी व मजबूत नींव जमा दी थी। बूधराज जैसे प्राध्यात्मिक कवि ने भुवनकीति की जिन शब्दों में प्रशंसा की है उससे मालूम होता है कि इनकी कीनि नानों :रल कीकी: कृषि भूवनकीति के दर्शन मात्र से ही सांसारिक दुःखों से मुक्ति एवं नव निधि को प्राप्त करने का निमित्त माना है । उनके चरणों में चन्दन व केशर लगाने के लिए कहा है। मुवनकीर्ति की विशेषतानों को लिखते हुए कवि ने उन्हें तेरह प्रकार के चारित्र से विभूषित सूर्य के समान तपस्वी तथा सर्वश भगवान द्वारा प्रतिपादित धर्म का बखान करने वालों में होना लिखा हैं । वे षट् दध्य पंचारित काय तत्वों पर प्रकाश डालते हैं तथा २२ परिषदों को सहन करते हैं । भ० भुवनकीति २८ मूल गुणों का पालन करते हैं। उन्होंने जीवन में दम धर्मों को धारण कर रखा है। जिनके लिए शत्रु मित्र समान है । तथा मिथ्यात्य का खण्डन करने जैन धर्म का प्रतिपादन करते है। भुवनकीर्ति के नगर प्रवेश पर अनेक उत्सव प्रायोजित होते थे, कामनियाँ गीत गाती तथा मन्दिर में पूजा पाठ करती थी।
बूघराज ने भट्टारक के स्थान पर मुवन कीति को आचार्य लिखा है इससे पता चलता है कि वे भट्टारक होते हुए भी नग्न रहते थे पौर प्राचार्यों के समान चारित्र पालन करते थे । लेकिन खुबराज की इसकी भंट कब हुई हुई इसका उन्होंने कोई उल्लेख नहीं किया। इसके अतिरिक्त इसी गीत में उन्होंने भट्टारक रत्नकीति के नाम का उल्लेख किया है और अपने प्रापको रत्नकीति के पट्ट से सम्बन्धित माना है। रत्नकीति भ० प्रभाचन्द्र के शिष्य थे जिनका भट्टारक काल संवत् १५७१ से १५८१ तक का रहा है।
८. नेमि गीत
बेचराज ने अपने लघु नाम बल्हण से एक नेमीपवर गीत की रचना की थी। यह भी अपभ्रश प्रभावित रखता है जिसमें १५ पञ्च हैं। संवत् १६५० में लिपिवद्ध पाण्डुलिपि दि० अन मा क्षेत्र श्री महावीर जी के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत थी। लघु गीतों का निर्माण
कविवर बुचराज ने एक और मयणजुज्झ एवं घेतन पुदगल धमाल जैसी रचनात्रों द्वारा अपने पाठकों को आध्यात्मिक सन्देश दिया तो यहाँ नेभीश्वर