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कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि
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एवं सूक्तियों से भरा पड़ा है। कवि ने जिन सीधे सादे शब्दों में प्रस्तुत किया है वह उसके गहन तत्व ज्ञान एवं व्यावहारिक ज्ञान का परिचायक है। कवि ने लोक प्रचलित मुहावरों का भी प्रयोग करके संवाद को सजीव बनाने का प्रयास किया है ।
भाषा, शैली एवं विषय वर्णन पादि सभी दृष्टियों से यह एक उत्तम काव्य है। ५. नेमिनाथ बसन्तु
यह एक लघु रचना है जिसमें बसन्त ऋतु के प्रागमन का प्राध्यात्मिक घौली में रोचक वर्णन किया गया है। एक मोर नेमिनाथ तपस्या में लीन है दूसरी भोर मादकता उत्पन्न करने वाली बसन्त ऋतु भी पा जाती है। राजुल ने पहिले ही संयम धारण कर लिया है इसलिये उसका मन रूपी मधुवन संयम रूपी पुष्प से भरा हुआ है । बसन्त ऋतु के कारण बोलसिरी महक रही है। समूचे सौराष्ट्र में कोयल कुहक रही है । भ्रमरों की गुजार हो रही है। गिरनार पर्वत पर गन्धर्व जाति के देव गीत गा रहे हैं । काम विजय के नगारे क्या बज रहे हैं मानों नेमिनाथ के यश के ढोल बज रहे हैं । और उनकी कौति स्वयं ही नाच रही हो। संयम श्री वहाँ निर्भय होकर घूमती है क्योंकि संयम शिरोमणि नेमिनाथ के शील की १८ हजार सहेलियाँ रक्षा में तत्पर है। उनके शरीर में ज्ञान रूपी पुष्प महक रहे हैं तथा वे चारित्र चन्दन से मंडित है। मोक्ष लक्ष्मी उनसे फाग खेलती है। नेमिनाथ तो नवरत्नों से युक्त लगते हैं लेकिन बसन्त स्वयं नवरसों से रहित मालूम पड़ता है। नेमि ने छलिया बनकर मानों तीनों लोकों को ही अपने अपने वश में कर लिया है।
संगम श्री राजुल ऐसी सुहावनी ऋतु में अपने नेमि को देखती है जो जब संसार जगता है तब वे सोते हैं और जब वे सोते हैं तो संसार जगता है। जिसने मोह के किवाड़ों को अपने अनिमिष नेत्रों से जला डाला है। स्वयं राजुल अपनी सखियों के साथ विभिन्न पुष्पों से नेमिनाथ की बन्दना के लिए सबको कहती रहती है । रचना काल
कवि ने इस कृति में किसी भी रचना काल का उल्लेख नहीं किया है। किन्तु मूल संघ के मंत्रण भट्टारक पद्मनन्दि के प्रसाद से इस कृति का निर्माण हुभा, ऐसा कवि ने उल्लेख किया है ।
मूलसंध मुखमंडण पदमनन्दि सुपसाई । वील्ह बसेतु जि गावई से सुखि रसीय कराह ।।