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कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि इसका उत्तर चेतन ने निम्न प्रकार दिया,
सिखर भूलिन खडहडै जिण सासण पाघारु ।
सूलि ऊपरि सोझिया चोरि जप्या नवकारु ।। चेयन गुण ।। ५६।। जड़ और पुद्गल ने बहुत सुन्दर एवं तर्कपूर्ण विवाद होता है लेकिन दोनों ही एक दूसरे के गुणों की महत्ता से अपरचित लगते हैं । इसलिए एक दूसरे के अवगुणों को बखारने में लगे रहते हैं।
पुद्गल कहता है कि पहले अपने प्रापको देखकर संयम लेना चाहिए । जितना ओढणा हो उतना ही पांव पसारना चाहिए । इसका पुद्गल उत्तर देता हुमा कहता है कि भला-भला सभी कहते हैं लेकिन उसके मर्म को कोई नहीं जानता। शरीर खोने पर किससे भला हो सकता है
भला करितहि मीत सुरिण, जे हुइ चुरहा जाणि । तो भी भला न छोड़िये उत्तिम यह परवारण ।। चेयन सुरण ।।७०।। मला भला सह को कई गन्य - बारी की।
काया खोई मीत रे भला न किस ही होए ।। चेयन गुण II: १|| यह शरीर हाड मांस का पिंजरा है। जिस पर चमड़ी छायी हुई है। यह अन्दर नरकों से भरा हुमा है लेकिन यह मूर्ख मानव उस पर लुभाता रहता है । इसका पुद्गल बहुत सुन्दर उत्तर देता है कि जैसे वृक्ष स्वयं घूप सहन कर औरों को छाया देता है उसी तरह इस शरीर के संग से यह जीव मोक्ष प्राप्त करता हैं ।
हासह केरा पंजरी परिया चम्मिहि छाइ । बहु नारकिहि सो पूरिया, मुरिखु रहिउ लुभाए । चेयन सुरग ।।७२।। जिम सरु पापणु धूप सहि, प्रवरह छाह कराइ ।
तिज इसु काया संगते, जीयडा मोतिहि जाए ॥ चैयन गुण ।। जिस तरह चन्द्रमा रात्रि का मण्डल और सूर्य दिन का उसी तरह इस चेतन का मण्डल शरीर है।
जिउ ससि मंकणु रयरिणका, दिन का मंडणु भाणु ।
तिम चेतन का मंडणा यह पुदगलु तू जाणु ।। चेयन सुगु ।।५।। काया की निन्दा करना तथा प्रत्येक क्षेत्र में उसे दोषी ठहराना पुद्गल को प्रच्छा नहीं लगा इसलिए वह कहता है कि चेतन शरीर की तो निन्दा करता है किन्तु अपनी ओर तनिक भी झांक कर नहीं देखता । किसी ने ठीक ही कहा है कि जैसेजैसे कांवली भीगसी है वैसे-वैसे ही वह भारी होती जाती है ।