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कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
३. बारहमासा नेमीस्वरका
नेमि राजुल को लेकर प्राम: प्रत्येक जैन कवि किसी न किसी कृति की रचना करता रहा है। हमारे कवि बुच राज ने भी नेमीस्वर का बारहमासा लिख. कर इस परम्परा को जोवित रखा । यह बारह मासा श्रावण मास से प्रारम्भ होकर प्राषाढ़ मास तक चलता है । इसमें रागु बड़हेसु के १२ पछ हैं जिनमें एक-एक महिने का वर्णन किया गया है। राजुल की विरह वेदना तथा नेमिनाथ के तपस्थी जीवन के प्रति जो उसकी अप्रसन्नता थी वह सब इन पद्यों में व्यक्त की गयी है।
इसमें न तो रचना काल दिया हमा है और न रचना स्थान । इससे कृति का निश्चित समय नहीं दिया जा सकता है। फिर भी भाषा एव शैली की दृष्टि से रचना संवत् १५९१ के पश्चात् किसी समय लिखी गयी थी। इसमें कवि ने अपना नाम 'बूषा' कह कर उल्लेख किया है।
बारह मासा साबरण माय से प्रारम्भ होता है। सावरण में राजुल नेमिनाथ से अन्यत्र गमन न करने का आग्रह करती है तथा कहती है कि उनके अभाव में उसका शरीर बाग जगा दीपा रहा। शामरा में विजा चमकती है तो उसका विरह असह्य हो जाता है । जब मोर कुह कुह की आवाज करते हैं उस समय नेमि की याद पाती है। इसलिए वह सावण मास में पन्यत्र गमन न करने की प्रार्थना करती है।
___कार्तिक का महिना जब भाता है तो राजुल हाथों में दीपक लेकर अपने महल पर चढ़कर नेमिनाथ का मार्ग खोजती है। उसकी मॉखें प्रासुर से भर जाती हैं। वे दशों दिशाओं की ओर दौड़ती हैं। सरोवर पर सारस पक्षी के जोड़े को देखकर वह कहती है कि नवयौवना एवं तमणी बाला ऐसे समय में अपने पति के विरह में कैसे जीवित रह सकती है 1 इसलिए वह नेमिनाथ से कार्तिक के महिने में पापिस पाने की प्रार्थना करती है।
१. प्राषाढ़ घटिया भराइ अचा नेमि प्रजउ न भाईया ] २. ए रुति लावणे सावरिण नेमि जिरण गवरणो न कोज वे।
सुरिंग सारंगा भाष दुसह तनु निणु लिगु छीजे थे। धीजति बाढ़ी विरह व्यापित धुरइ घण मर मेसिया। सालर सरि रड रसहि निसि भरि रयरिग विजु खिवंतिया । सुरगोपि यह सुह वसुह मांडत भोर कुह कुहि वलि वरिण । विनति राजुस मुरगहु नेमिजिन गयउ ना कर सावणे ॥१॥