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ॐ २
कर्मविज्ञान : भाग ८ 8
जो सुख-दुःखरूप फल भोगते समय सुख के प्रति राग या आसक्ति और दुःख के प्रति द्वेष, घृणा, अरुचि रखता है। ऐसा व्यक्ति पुण्य का फल भोगते समय हर्षोन्मत्त होता है, तो राग को बल मिलता है और पाप का फल भोगते समय, घृणा या अरुचि दिखाता है, तव द्वेष को बल मिलता है। राग और द्वेष दोनों कर्मवन्ध के कारण हैं। दोनों प्रकार का कर्मबन्ध जीवन को दुःख में डालता है, दोनों प्रकार के कर्मबन्ध को तोड़ना (निर्जरा = कर्मक्षय करना) ही वस्तुतः अव्यावाध आत्मिक-सुख (आनन्द) को प्राप्त करना है। कर्मबन्ध को कैसे तोड़ें ? कैसे निर्जरा करें ?
प्रश्न होता है-“कर्मविज्ञान की दृष्टि में कर्मबन्ध को कैसे तोड़ा जा सकता है?' इसका समाधान भी कर्मविज्ञान यही देता है कि सुख और दुःख दोनों में समभाव रखना, सम रहना ही कर्मबन्ध को तोड़ने का अमोघ उपाय है, इसे ही कर्मविज्ञान की भाषा में निर्जरा कहा जाता है। कर्म का सुख-दुःखरूप फल समभावपूर्वक भोग लेने से उस कर्म का बन्ध टूट जाता है, उस कर्म का क्षय हो जाता है, कर्मनिर्जरा हो जाती है। इसे दूसरे शब्दों में यों भी कहा जा सकता है जो व्यक्ति पुण्य का फल भोगते समय (सुखी) सुखोन्मत्त नहीं बनता और पाप का फल भोगते समय दुःखमग्न (दुःखी) नहीं बनता, वही ज्यों का त्यों समभाव से कर्मफल भोगकर उक्त कर्मबन्ध को तोड़ डालता है। अर्थात् सुख (कर्मजनित सुख) प्राप्त होने पर सुखी न होना और दुःख प्राप्त होने पर दुःखी न होना ही कर्मबन्ध से छुटकारा पाने की कला है-कर्मफल भोगने की कला है, इसे ही निर्जरारूप धर्म की कला कहा जाता है। इस सम्बन्ध में आचार्य कुन्दकुन्द ने समताधर्म की कला को न जानने वाले लोगों के लिये कहा है
“वेदन्तो कम्मफलं सुहिदो दुहिदो य हवदि जो वेदा।
सो तं पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं॥" -जो व्यक्ति कर्मफल को भोगता हुआ वेदन में सुखी और दुःखी होता है, वह पुनः दुःख के बीजरूप अष्टविध कर्मों को बाँध लेता है। सुख-दुःख का वेदन न करे, तभी आंशिक मुक्ति पाता है
कर्मनिर्जरारूप धर्म की कला को वही भलीभाँति अभ्यस्त और अवगत कर पाता है, जो सुख और दुःख की स्थिति में सुख और दुःख का वेदन न करे, समभाव में स्थित रहे। जब पुण्यफल के रूप में व्यक्ति को सुख-सुविधाएँ और भौतिक सुख-सामग्री मिले, उस समय उसे सुख से गर्वोन्मत्त न होना, अंहकार और हर्षोन्माद से ग्रस्त न होना तथा अशुभ कर्म (पाप) के फल के रूप में रोग, दुःख,
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