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निर्जरा का मुख्य कारण: सुख-दुःख में समभाव
एकान्त सुख और एकान्त दुःख किसी जीवन में नहीं आता साधारणतया यह देखा जाता है कि संसार में अधिकांश व्यक्ति सुख के समय अहंकार से फूल जाते हैं, हर्ष से उछल पड़ते हैं और जब दुःख आ पड़ता है, तब विषाद, शोक, चिन्ता और उदासीनता से भर जाते हैं, खिन्न हो उठते हैं। पर उन्हें प्रायः यह भान नहीं रहता कि सुख शुभ कर्म = पुण्य का फल है, जबकि दुःख अशुभ कर्म = पाप का फल है। मगर अधिकांश मनुष्य सुख ही चाहते हैं, दःख बिलकुल नहीं चाहते; सरस-सुखद जीवन चाहते हैं; नीरस-दुःखद जीवन नहीं चाहते। वे यह नहीं सोच पाते कि संसार में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा, जिसके जीवन में सुख ही सुख आया हो, दुःख कभी न आया हो। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं मिलेगा, जिसने जीवन में सुख ही सुख का अनुभव किया हो, दुःख का अनुभव कभी न किया हो। इसके विपरीत ऐसा भी कोई व्यक्ति नहीं मिलेगा, जिसके जीवन में दुःख ही दुःख आये हों, सुख के दर्शन कभी न हुए हों। प्रश्न होता है-व्यक्ति जब सुख ही भोगना चाहता है, तब दुःख भोगने का अवसर क्यों आता है ? ये सुख और दुःख किसने अर्जित किये हैं ? भगवान महावीर से जब यह प्रश्न किया गया तो उन्होंने कर्मविज्ञान की भाषा में उत्तर दिया-“दुःख अपने आप द्वारा किया हुआ है।'' इसका फलितार्थ यह है कि मनुष्य स्वयं सातावेदनीय और असातावेदनीय कर्म का बन्ध करता है और उदय में आने पर सुखरूप और दुःखरूप फल भोगता है।
दुःख सुखरूप फल के समय आसक्ति से कर्मबन्ध करता है वास्तव में, जो सुख भोगने में आसक्त होता है, वह दुःखभोग को भी आमंत्रित करता है। क्योंकि पुण्य और पाप दोनों उस मनुष्य को बराबर बन्धन में डालते हैं,
१. (क) दुक्खे केण कडे ? अत्तकडे दुखे।
(ख) अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य।
-उत्तराध्ययनसूत्र
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