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वह हैरान हुआ कि उसे दूधमें मीठा (गुजराती में मीठा यानी नमक) डालनेको क्यों कहा जा रहा है। पहले तो वह चुप रहा, लेकिन आग्रह किये जाने पर उसने एक चम्मच भरकर दूधमें मीठा डाल दिया । बच्चीने दूध पीनेसे इन्कार कर दिया। दूध न पीनेकी जिद देख कर उसकी माँ को बहुत बुरा लगा । उन्होंने अपनी बच्चीको बहुत डराया धमकाया, लेकिन कोई असर न हुआ।
मामला संगीन होता ही जा रहा था। हम लोग बीच-बचाव करने चले । रसोइये से पूछा गया । उसने जवाब दिया, "साहब, इन्होंने दूधमें मीठा डालनेको कहा था, सो मैंने डाल दिया ।" यह घटना सुनकर पण्डित जीके चेहरे पर हर्षकी रेखा फूट पड़ी और आनत्यकी एक हंसी चारों ओर बिखरती हुई दिखाई दो
एक दूसरा प्रसंग याद आ गया । दिवालीका दिन था । पण्डित जी तथा स्याद्वाद विद्यालयके विद्यार्थी भदैनीके छेदीलाल मंदिरमें उपस्थित थे। भगवान्की प्रतिमाका अभिषेक सम्पन्न होनेके पश्चात् पूजाकी सामग्री पालमें सजायी जा चुकी थी, पूजा पढ़ी जा रही थी। इस बीच देखा कि पण्डित जीका लड़का सुपार्श्व वहाँसे गायब है । इधर-उधर खोज की जाने लगी । देखा, तो वे एक कोने में बैठे आरामसे लड्डूका स्वाद ले रहे हैं। "कहिये इसे लड्डुका सदुपयोग कहा जाये या दुरुपयोग ।"
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इस प्रसंग को याद कर हम लोग खूब हँसे ।
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मेरे जेष्ठ भ्राता की इच्छा थी कि मैं संस्कृत पढ़कर समाजकी कुछ सेवा करूँ। उन्हें पता लगा कि मोरेनामें पण्डित गोपालदास जी बरैयाकी कोई पाठशाला है जहाँ विद्यार्थियोंको निःशुल्क शिक्षा आदि देने की व्यवस्था है । मुझे साथ लेकर वे मोरेना पहुँचे और यद्यपि वार्षिक परीक्षाके दिन नजदीक थे, फिर भी पण्डित देवकीनन्दन जी शास्त्रीकी परम अनुकम्पासे मुझे प्रवेश मिल गया ।
यहाँ कैलाशचन्द्र जीसे मेरा दूरका प्रथम परिचय हुआ। वे बड़ी कक्षाके विद्यार्थी थे और मैं ठहा एक साधारण-सा विद्यार्थी जो अभी-अभी जैन सिद्धान्त पाठशाला में भरती हुआ था ऐसी हालत में अपनी सीमाओंको लांघकर उनके परिचयमें आनेकी कल्पना भी मैं नहीं कर सकता था ।
यहाँ जो कैलाशचन्द्रजी और जगन्मोहनलालजीका निकटका सम्बन्ध देखने में आया, वह अन्यत्र दुर्लभ ही होगा । और विशेषता यह है कि यह सम्बन्ध दोनोंमें अभी तक सुरक्षित है । दोनों ऊँची कक्षाके प्रमुख विद्यार्थी थे । वे न्यायाचार्य पण्डित माणिकचन्द्रजी से अष्टसहस्री, सिद्धांताचार्य पण्डित वंशीधरजीसे तत्त्वार्थवार्तिक पढ़ते थे । दोनों पाठशालाके जेष्ठ विद्यार्थियोंके साथ एक बड़े हालमें साथ साथ रहते थे। दोनों एक साथ जंगलमें शौच जाते, साथ स्नान करते और साथ ही मन्दिर में दर्शनार्थ जाते, शामको एक साथ टहलने जाते और गांवसे एक लोटेमें दूध लेकर लौटते इन दोनोंकी मित्रतासे सचमुच में प्रभावित हुआ जान पड़ा। सम्भवतः कैलाशचन्द्र जीके प्रति मेरे अज्ञात मनमें इसलिये भी रागभाव रहा हो कि वे मेरे जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेशके अग्रवाल वंशमें जन्मे थे ।
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एक बार मैं नजीबाबाद (जिला बिजनौर) में अपने मामाके घर गरमियोंकी छुट्टियां बिता रहा था। एक दिन मामाके किसी मित्रको दुकान पर बैठा हुआ था । इतने में देखता क्या हूँ कि कैलाशचन्द्र और जगन्मोहनलाल घोड़े के लॉंगमें बैठे हुए उस दुकानके सामने आकर रुके। मैं समझ गया कि अवश्य ही कैलाशचन्द्र जीने अपने मित्रको जन्मस्थान नहटौर आनेका निमंत्रण दिया होगा। लेकिन क्या आप समझते हैं कि तपाक से उठकर मैंने उनका स्वागत किया, या यह कहनेकी हिम्मत की कि देखिये मैं भी यहींका रहने वाला हूँ नहीं, मुझ जैसा एक छोटा सा अल्पश विद्यार्थी अपने से बड़े विद्यार्थियोंसे बातचीत करनेकी हिमाकत कैसे कर सकता था ? यद्यपि कहनेकी आवश्यकता नहीं कि यह प्रश्न आज भी मेरे मनमें कम तूफान पैदा नहीं करता
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