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१९१९ के बाद मैं मुरैनाके विद्यालयमें चला आया लेकिन मेरा और कैलाशचन्द्र जी का भ्रातभाव अबतक भी सहोदर जैसा बना हआ है। आज भी, जब कभी वे बम्बई, भोपाल या दक्षिणकी ओर जाते हैं, तो कुछ समयके लिए जबलपुर अवश्य ठहरते हैं । उस समय हम तत्त्वज्ञानकी चर्चा करते हैं ।
इस वय-बोझिल तनसे आज भी वे अपने अध्ययन, लेखन एवं शोधकार्य में लगे हुए हैं। वे समाजसे स्वयं कोई पारिश्रमिक ग्रहण नहीं करते। यह उनकी ज्ञानके प्रति सच्ची निष्ठा, समाजके प्रति उदारतापूर्ण कर्तव्यभावनाका प्रतीक है। अपने जीवनकालमें उन्होंने अनेक धर्मग्रन्थोंका सम्पादन, मौलिक ग्रन्थोंका लेखन एवं शोध कार्य किया है। उनके लेखनकी विशेषता यह है कि वे मूल ग्रन्थकी मौलिकता अक्षुण्ण रखते हैं । लेखनके साथ आपने अनेक संस्थाओंको जन्म दिया है। इन्हें वे आज भी पुष्पित एवं पल्लवित कर रहे हैं।
कैलाशचन्द्र जी की वाणीमें प्रखरता तथा माधर्यका मिश्रण है। उनकी पाण्डित्य शैली सहज बौधग य होती है। उनका ज्ञान अगाध है। जबलपुर नगरीमें ही आज ३२ विद्वान् उनके शिष्य हैं जो विभिन्न क्षेत्रोंमें अपने साथ आपकी यशोगाथा भी प्रद्योतित कर रहे हैं।
पं० कैलाशचन्द्रजीकी आत्मीयता मझे सदैव याद आती है। यद्यपि हमारा और उनका कार्यक्षेत्र प्रारम्भसे ही पथक-पृथक रहा है, फिर भी वह आज तक बनी हुई है। एक बार १९४८ में मुझे संग्रहणी हो गया और मैं चिकित्साहेतु वाराणसी गया। उस समय आपने मुझे अपने घर पर ही ठहराया और पूर्ण स्वस्थ होने तक आपके परिवारने मेरी सभी प्रकारसे सेवा की । वह आज भी स्मरणमें आती है। ऐसी आत्मीयता आज तो दुर्लभ ही है ।
____ ज्ञान गंगाका यह भगीरथ चिरायु हो, यही मेरो जिनेन्द्रदेव से प्रार्थना है । भूली-बिसरी यादें
डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, बम्बई "जगदीश चन्द्र जी", यह आवाज सुनकर मैंने घूमकर देखा, तो श्वेत गांधी टोपीमें धोती-कुर्ता पहने पण्डितजी बैठे हए दिखाई दिये। मैंने कहा, 'पण्डित जी आप?'
"हाँ, घर लौट कर आने पर दरवाजे पर लगा हआ आपका नोट देखा, तो पूछता-पूछता मैं कृष्णचन्द्र बेरी जी की दुकान पर पहँचा और उन्होंने अपनी गाड़ी में मुझे यहाँ भेज दिया ।"
"आपको बड़ा कष्ट हुआ, पण्डित जी ?'
"आप मेरी अनुपस्थितिमें मेरे घर गये और घर पर मिल न सका। आपसे बिना मिले रह जाता, तो आपको कष्ट होता। कष्ट तो किसीको होना ही था।"
मैंने अपने गाँवके निवासी अपने भतीजे गणभषण जैन से, जो उत्तर पूर्वी रेलवेमें इन्जीनियर हैं और जिनके घर हम लोग ठहरे हए थे, पण्डित जी का परिचय कराया।
काशी एक्सप्रेसके छूटनेका समय हो रहा था। हम लोग गाडीमें सवार होकर स्टेशनके लिये चल दिये । रास्ते में मेरी पत्नीने पण्डित जी की लडकीके बारेमें पूछा जो बहत दिन पहले बम्बई आई थी। उन्होंने कहा, "अब तो बड़ी हो गई है, उसकी शादी भी हो गई।"
उस समयकी एक घटना मुझे याद आ गई। उस दिनों मेरी पत्नी की अस्वस्थताके कारण हम लोगोंने भोजन बनानेके लिये एक गुजराती रसोइयाँ रक्खा था। पण्डित जी सपरिवार हमारे घर ठहरे हुए थे। उनकी छोटी बच्चीको पीनेके लिये दूध दिया गया। पण्डित जी ने रसोइयेसे दूधमें मीठा डाल देनेको कहा ।
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