Book Title: Jivanushasanam
Author(s): Devsuri
Publisher: Jagjivan Uttamchand Shah
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( ९ )
कण्ठ्या ।
इयाणि संकियत्ति दारं । निस्संकियगाहा
निस्संकियं च काहिइ उभये जं संकियं च सुअहरेहिं ॥ ( दारं )
पत्तदार मियाणि
अव्वोच्छित्तिकरं वा लव्भ पत्तं दुपक्खाओ । ( दारं ) भावणादारमियाणि
जाइ-कुल- रूब-घण- बलसंपन्ना इइढिमंत निस्संका । जयणाजुत्ता य जई समेच्च तित्थं पभाविति ।
उक्तं च-
प्रवचनी धर्मकथी वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च । जिनवचनरतच कविः प्रवचनमुद्भावयन्त्येते ||
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जो जेण गुणेण रहिओ जेण विणा वा न सिज्झए जंतू । सो तेण धम्मकज्जे सव्वत्थामं न होवे || ( दारं ) इयाणि पवित्तिदारं
साहम्मियागयाणं खेमसिवाणं च लब्भइ पवित्तिं गच्छति जहिं ताई होहिंति नवावि अच्छ वा ॥ ( दारं )
इयाणि कज्जदार उहाहदारे
कुलमाईणं कज्जाइ साहिस्सं लिंगिणो य सासिस्सं । जं लोग विरुद्धाई करिति लोगुत्तराई च
समाप्ता द्वारगाथा ।
अत्र संज्ञिद्वारणैव प्रयोजनं तदर्थव्याख्यानायाह
--
तत्थ य पदमं ठवणं पढमं णसणं भांति समयविऊ ।
पुर्व पट्टियाए रहमि अणुयाण अहिगारा || १३||
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