Book Title: Jivanushasanam
Author(s): Devsuri
Publisher: Jagjivan Uttamchand Shah
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(८८) अह पुण अविजमाणो (णे) सुस्सूसयरे उ उज्जमाविति । तो पच्छित्तं भणियं पयर्ड ववहारगंथंमि ॥ २२६ ॥ सुगमा, तथा व्यवहारे भणितंअणुसंह उज्जमींतिइ विजंते चेइयाण सारवए। पडिवज्जंते विजन्तए गरुया अभत्तीए॥८॥ इति ।। ननु तेषां तत्करणे पुण्यं भवति वा न वा ? इत्याहहोउ व मा होउ वत्तिय पु तकारयाण सव्वन्नू । जाणति ते ववहारओ उ जम्हा इमं वयणं ॥ २२७ ॥ सुबोधा। तदेवोक्तदयेनाहसमयविपत्ती सब्वा आणायज्झत्ति भवफला चेव ॥ तित्थयरुद्देसेणवि न तत्तओ सा तदुद्देसा ॥ २२८ ॥ तथा छेदग्रन्थभणितम्दुन्भिगंधमलस्सावी तणु रप्पे सण्हाणिया। .. उभओ वाउवहे चेव ते णटुंति न चेइए ॥ २२९ ॥ सुगमम् । श्रावकाणां पुनस्तत्र किमित्याहसड्ढाण पुणो चेइहरं तु जह तह व होउ निप्पन्न । पूइज्जतं फलय मयमेयं आगमन्नूणं ॥ २३० ॥
१ अथ पुनरविद्यमाने शुश्रूषापरे तु उद्यमयन्ति । ततः प्रायश्चितं भणितं प्रकटं व्यवहारग्रन्थे ॥ २२५ ।। २ अनुशास्तौ उद्यमयन्ति विद्यमाने चैत्यानां सारके । प्रतिपद्यमाने विद्यमाने गुरवः अभक्त्या ॥ ८ ॥
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