Book Title: Jivanushasanam
Author(s): Devsuri
Publisher: Jagjivan Uttamchand Shah
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(७६) जिणपवयण-विद्धिकरं पभावणं नाण-दसणगुणाणं ।। रक्खंतो जिणदव्वं परित्तसंसारिओ होइ ॥ १०६ ॥ जिणपवयण-विद्धिकरं पभावणं नाण-दसणगुणाणं । वडिंढतो जिणदव्वं तित्थयरत्ताइ लहइ ॥ १९७ ।। जिणपवयण--विद्धिकरं पभावणं नाण--दसणगुणाणं ।
भक्खंतो जिणदव्वं अणंतसंसारिओ होइ ॥ १९.८ ॥ सुगमाः । अयमाशयः-तन्मते जिनद्रव्याभावात् कथं रक्षण-वर्धन- भक्षणसंभवः ? तथा तत्रैव
"चेइअदवं साहारणं च जो दुहइ मोहियमईउ । धम्मं च सो न याणइ अहवा बडाउओ पुब्विं ॥ चेइयदव्वविणासे तब्बविणासणे दुविहभेए । साहू उविक्खमाणो अणंतसंसारिओ भणिओ॥" व्याख्या-तथा पश्चकल्पे भणितम्-जया पुण पुवावन्नाणि खेत्त--हिरण्णाणि दुपय-चउप्पयाई जइ भंडं वा चेइयाणं लिंगत्था वा चेइ यद राउलबलेण खायंति, रायभडाई वा अच्छिदेजा, तथा तव-नियमसंपउत्तो वि साह जई न मोएइ, वावारं वा न करेइ तया तस्स सुद्धी न हवइ, आसायणा य भवइ ।" एतच्च कथं सार्थकम् ? किंच कृतकत्वाद् देवगृहभङ्गे कालेन द्रव्याभावात् कथं पुनस्तदुडारः क्रियते इति ॥
मृत्रसम्बन्ध गाथामाह
अन्नं चासुहतरयं कुणंतओ वि हु सुहाउ भावाउ । पावइ पुग्नं सल्लुद्धरो व्व वीरस्स किंतु सुहं ॥ १९ ॥
व्याख्या-अन्यच्च-अपरं च, अशुभतरकम्-अतिशयानिष्टम, कुवाणोंविदधानः, हुः पूरणे, शुभात्-प्रशस्ताद्, भावाद्-अन्तःकरणात्. प्राप्नोनि-पुण्य
१. पुठ्वपवत्ताणि.
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