Book Title: Jivanushasanam
Author(s): Devsuri
Publisher: Jagjivan Uttamchand Shah
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( १३ ) जह समयण्णू जंपति मुणसु तइ जीव ! समयवयणाई पुच्चुत्तदोसजालस्स जेण नो भायणं होसि ॥ १६ ॥
व्याख्या-' यथा' येन प्रकारेण 'समयज्ञाः' सिद्धान्तविदो ‘जल्पन्ति' वदन्ति ' मुणसु ' जानीहि तथा' तेन प्रकारेण, न पुनः स्वमत्यवबोधेन, 'जीव ! ' आत्मन् ! ' समयवचनानि' सिद्धान्तवाक्यानि । तत् — पूर्वोक्तदोषजालस्य ' भवपातादिदूषणबातस्य येन कारणेन ' नो' नैव भाजनं पात्रं भवसि जायसे इति गाथार्थः।
समाप्तो बिम्बप्रतिष्ठावर्णनलक्षणप्रथमाधिकारः । पूर्वोक्तसम्बन्धमिदानी द्वितीयमधिकारं सपूर्वपक्षोत्तरं गाथात्रयेणाहउस्मगतरलियमई करिति नो कारविंति वंदणयं । पासत्थाईयाणं तं न जओ कप्पमाईसु ॥ १७ ॥ कारणजाए जाए पासत्थाईण वंदणं कुज्जा । अह नो करेइ साहू इमं तओ होइ पच्छित्तं ॥ १८ ॥ भणियं सुद्धजईणं एवं जे उण हवंति पासत्था । एएहि गुणेहि ततो नो हुजइ ताणिमं भणिउं ॥ १९॥ उत्सर्गेण-सामान्योक्तविधिना - पासत्थाई वंदमाणस्स नेव कित्ती न निजग होइ ।
कायकिलेसं एमेव कुणइ तह कम्पबंध च ॥" इत्येवमादिना तरलिजा-अपथावीभूता मतिर्बुद्धिर्येषां ते उत्सर्गतरलिनमतयः 'कुर्भनि विदयति स्वयं, नो इति निषेये नोशद्वय डमरुकनन्थिन्यायेनोभयत्र सम्बन्धात् न च कारयन्त्यन्यस्मात् आत्मव्यतिरिक्तात् वन्दनकं थोमवन्दनादिकम् । केषाम् ? इत्याह-पार्श्वस्थादीनां सिद्धान्तोक्तलक्षणानाम्, आदिशब्दादवसन्नादिग्रहः, 'तत् । तरलितमतिकरणादिकं नेति निषेधे । 'यतो' यस्मात्कारणात् कल्पादिच्छेदग्रन्यादिषु आदिशब्दादावश्यकचूर्णि-तद्वत्ति-निशीथादिपरिग्रहः, 'कारणजाते ' प्रयोजनपकारे ' जाते ' सम्पन्ने पार्थस्थादीनां वन्दनमुक्तरूपं ' कुर्याद् ' विदध्यात् ।
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