Book Title: Jivanushasanam
Author(s): Devsuri
Publisher: Jagjivan Uttamchand Shah
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संघेण पुणो बाही जो विहिओ होज सो उनो वंदो। पासस्थाई सडाण सव्वहा एस परमत्थो ॥ १७० ।।
व्याख्या-सोन प्रतीतेन पुनः बहिस्तायोनिर्दिष्टनामा विहितः कृतः भवेजायेत स पुनर्नो नैव वन्द्यो नमस्करणीयः पार्श्वस्थादिः प्रतीतः श्राद्धानां श्रावकाणां सर्वथा सर्वैः प्रकारैरेषो निर्दिष्टरूपपरमार्थस्तत्वमिति गाथार्थः॥
सूत्रकृतसम्बन्ध गाथामाहकिंच सिरिपंचकप्पे दवलिंगम्स धारणे भणिओ।
एस गुणो सूरिहिं इमाहिं गाहाहिं पयडत्थो ॥ १७१॥
व्याख्या–किश्चेत्यभ्युच्चये । श्रीपञ्चकल्पे छेदग्रन्थे द्रव्यलिङ्गस्य रजो हरणादेर्धारणे स्वीकारे भणित उक्त एष वक्ष्यमाणो गुणो लष्टत्वं मूरिभिस्तस्कारकरिमाभिर्वक्ष्यमाणाभिर्गाथाभिश्छन्दोविशेषरूपाभिः प्रकटार्थोः निश्चिताभिधेय इति गाथार्थः ॥
ता एवाहएवं तु दवलिंगं भावे समणत्तणं तु नायव्वं । को उ गुणो दवलिंगे भन्नइ इणमो सुणसु वोच्छं ॥ १७२ ।। सकारवन्दणनमंसणा य पूयणकहणा य लिंगकप्पम्मि । पत्तेयबुद्धमाई लिंगे छउत्थओ गहणं ॥ १७३ ॥ दवण दव्वलिंगं कुव्वंते याणि इंदमाईवि । लिंगम्मि अविजंते न नज्झइ एस विरओत्ति ॥ १७४ ॥ पत्तेयबुद्धो जाव उ गिहिलिंगी अहव अन्नलिंगी वा। देवावि ता न पूए मा पुजं होहिइ कुलिंगा ॥ १७५ ।।
लिङ्गकप्पो पञ्चकल्पो भणितः, प्रकटार्थश्च, विशेषावश्यकेपि लिङ्गस्य पूज्यता सपूर्वपक्षोत्तरभणिता अभूभिर्गाथाभिः ।
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