Book Title: Jivanushasanam
Author(s): Devsuri
Publisher: Jagjivan Uttamchand Shah
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(७१) इदं न जानन्ति तद्गाथाद्वयेनाहविग्गहविवायरुइणो कुलगणसंघेण बाहिरकयस्स ॥ नत्थि किर देवलोगेवि देवसमिईसु ओगासो॥ १७८ ।। जइ ता जणसंववहारवज्जियमकज्जमायरइ अन्नो।
जो तं पुणोवि संथइ परस्स वसणेण सो दुहिओ ॥१७९॥ प्रसीतार्थे । एतदपि युज्येत योकमतीकर्तुं शक्येत जगदिति गाथार्द्धमाह
नो सका काउं जे भुवणं सव्वंनुणावि एकमयं ॥ स्पष्टं, अतो जीवोपदेशं गाथाःनाह___ता मा कलहं रे जीव कुणसु चिंतेसु अपाणं ॥ १८० ॥ सुवोधम् ॥
श्रावकसे वाविचारः षाडेशोधिकारः॥ अधुना सप्तविशतितमाहमुद्धजणछेत्तमुहबोहसस्सविद्दवणदक्खसमणीओ।
ईईओ विय काओ वि अडति धम्म कहतीओ ॥ १८१ ॥
व्याख्या-मुग्धजनाः स्खलाबुद्धिलोकाः त एव क्षेत्राणि बीजवपनभूमयस्तेषु शुभबोधः प्रधानाशयः स एव सस्यं धान्यं तस्य विद्रवणं विनाशकरणं तत्र दक्षाः पद्व्यः प्राकृतत्वाचात्र विभक्तिलोपः, श्रमण्यः आर्यिका ईतय इव तिड्डाद्या काचन न सर्वा अटन्ति ग्रामादिषु चरनि धर्म दानादिकं कथयन्त्यो ब्रुवाणा इति गाथार्थः ॥
एतदपि निराकर्तुमाह---
एगणं वि य तं न सुंदरं जेण ताणपि डिसेड़ो। सिद्धृतदेसणाए कप्पट्टिय एव गाहाए ।। १८२॥
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