Book Title: Jivanushasanam
Author(s): Devsuri
Publisher: Jagjivan Uttamchand Shah

View full book text
Previous | Next

Page 81
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth ong www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७१) इदं न जानन्ति तद्गाथाद्वयेनाहविग्गहविवायरुइणो कुलगणसंघेण बाहिरकयस्स ॥ नत्थि किर देवलोगेवि देवसमिईसु ओगासो॥ १७८ ।। जइ ता जणसंववहारवज्जियमकज्जमायरइ अन्नो। जो तं पुणोवि संथइ परस्स वसणेण सो दुहिओ ॥१७९॥ प्रसीतार्थे । एतदपि युज्येत योकमतीकर्तुं शक्येत जगदिति गाथार्द्धमाह नो सका काउं जे भुवणं सव्वंनुणावि एकमयं ॥ स्पष्टं, अतो जीवोपदेशं गाथाःनाह___ता मा कलहं रे जीव कुणसु चिंतेसु अपाणं ॥ १८० ॥ सुवोधम् ॥ श्रावकसे वाविचारः षाडेशोधिकारः॥ अधुना सप्तविशतितमाहमुद्धजणछेत्तमुहबोहसस्सविद्दवणदक्खसमणीओ। ईईओ विय काओ वि अडति धम्म कहतीओ ॥ १८१ ॥ व्याख्या-मुग्धजनाः स्खलाबुद्धिलोकाः त एव क्षेत्राणि बीजवपनभूमयस्तेषु शुभबोधः प्रधानाशयः स एव सस्यं धान्यं तस्य विद्रवणं विनाशकरणं तत्र दक्षाः पद्व्यः प्राकृतत्वाचात्र विभक्तिलोपः, श्रमण्यः आर्यिका ईतय इव तिड्डाद्या काचन न सर्वा अटन्ति ग्रामादिषु चरनि धर्म दानादिकं कथयन्त्यो ब्रुवाणा इति गाथार्थः ॥ एतदपि निराकर्तुमाह--- एगणं वि य तं न सुंदरं जेण ताणपि डिसेड़ो। सिद्धृतदेसणाए कप्पट्टिय एव गाहाए ।। १८२॥ For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129