Book Title: Jivanushasanam
Author(s): Devsuri
Publisher: Jagjivan Uttamchand Shah
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(५८) सन्ति शोभना भव्या यदि सहाया गीतार्थादिसाधवः, जीव ! आत्मन् ! ततो विहर पर्यट । अथेति विकल्पार्थे । नो नैव ततः शंस श्लाघप विहरत आगमोक्तविधिना चरत इति गाथार्थः ॥
स्कन्धचटितविहारवर्णन(स्वरूप)एकविंशतितमोऽधिकारः ॥ द्वाविंशमाहमोत्तूणं पढणत्थं सिस्से विहरंति मासकप्पेणं ।
केइ पसिद्धत्थी उज्जय म्हि लोए पयासित्ता ॥ १२४ ।।
व्याख्या--मुक्त्वा त्यक्त्वा पठनार्थमागमादिग्रहणार्थ शिष्यान् अन्तेवासिनो विहरन्ति पर्यटन्ति मासकल्पेन प्रतीतेन केपि न सर्वे प्रसिद्धयर्थिनः ख्यातिकामा उद्यताः सुविहिता 'अम्हे 'त्ति वयं लोके जगति प्रकाशयन्तः प्रकटयन्तः इति गाथार्थः ॥
इदमपि निषेधयन्निदमाह----
नेयंपि आगमन्नूणं माणसे जणइ सोहणुक्करिसं ।
जम्हा समए भणिओ विहारकरणमि एस विही ॥१२६॥
व्याख्या-नेति निषेधे । इदमपीत्थं विहरणं न केवलं पूर्वोक्तमित्यपिशव्दार्थः आगमज्ञानां सिद्धान्तविदां मानसे चित्ते जनयत्युत्पादयति शोभनं लष्टमुत्कर्ष प्रमोदम् , यस्मात्समये आगमे भणित उक्तो विहारकरणे चंक्रमण विधौ एष वक्ष्यमाणो विधिः कर्तव्यप्रकार इति गाथार्थः ॥
तामेवार्थतोऽर्द्धतृतीयगाथाभिरेवाह
सुत्तत्थेहिं निप्फाइऊण सिस्से उ एगठाणाठओ। मोत्तुं मासविहारं काऊणं पोरिसिदुगं तु ॥ १२७ ॥ गामंगामेण तओ विहरिज्जा सुविहिओ निरासंसो। नियएणुवगरणेणं सव्वेणं गिहिएण तहा ॥ १२८ ॥ तिविहेण लाघवेणं उवहिसरीरिंदियाभिहाणेणं ।
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