Book Title: Jivanushasanam
Author(s): Devsuri
Publisher: Jagjivan Uttamchand Shah
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( ६४-ड )
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खानेवाह
इत्थिकहा उ अगुत्ती अकालचारितणं तहा संका । पलिमंथो तह दसकालियंमि अन्नं इमं भणियं ॥ १५१ ॥
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व्याख्या - स्त्रीषु केवलनारीषु कथा-धर्मकथनमिदं चोत्तराध्ययने द्वितीportant कथितम् तुः समुच्चये, अगुत्तिः प्रत्यहं तदिन्द्रियदर्शनतो ब्रह्मचर्या रक्षा, अकालचारित्वं अप्रस्तावागपनत्वं, नहि तासां मध्याह्ने केवलानां यत्युपात्रये आगमे आगमनमनुज्ञातम्, तथा समुच्चयार्थः, शङ्का सन्देहो नूनं प्रत्यहमेवं ग ar satosमेताः करिष्यन्तीत्येवं मन्दमतिचिन्तनरूपा, पलिमन्थः स्वकाव्याघातः साधूनाम. तथा परम, दशवैकालिके समयप्रसिडे, अन्यदपरम् इदं वक्ष्यमाणम्, भणितमुक्तम, इति गाथार्थः ॥
तदेव लोकपञ्चकेनाह -
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विभूसा इत्थिसंसग्गी पणीअं रसभोयणं । नरस्सत्तगवेसिस्स विसं तालउडं जहा ।। १५२ ।।
जहा कुक्कुडपोयस्स निच्चं कुललओ भयं । एवं बंभयारिस्स इत्थीविग्गहओ भयं ।। १५३ ॥
हत्पापपछि कन्ननासविगुप्पियं । अवि वाससयं नारि बंभचारी विवज्जए ॥ १५४ ॥
अंगपच्चंगसंठाणं चारुल्ल वियपेहियं । इत्थीणं तं न निजाए कामरागविवड्ढणं ॥ १५५ ॥
चित्तभित्ति न निज्जाए नारिं वा सुअलंकियं । भक्खरं पिव दणं दिट्ठि पडिसमाहारे ।। १५६ ।।
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