Book Title: Jivanushasanam
Author(s): Devsuri
Publisher: Jagjivan Uttamchand Shah

View full book text
Previous | Next

Page 74
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ६४-ड ) - खानेवाह इत्थिकहा उ अगुत्ती अकालचारितणं तहा संका । पलिमंथो तह दसकालियंमि अन्नं इमं भणियं ॥ १५१ ॥ , व्याख्या - स्त्रीषु केवलनारीषु कथा-धर्मकथनमिदं चोत्तराध्ययने द्वितीportant कथितम् तुः समुच्चये, अगुत्तिः प्रत्यहं तदिन्द्रियदर्शनतो ब्रह्मचर्या रक्षा, अकालचारित्वं अप्रस्तावागपनत्वं, नहि तासां मध्याह्ने केवलानां यत्युपात्रये आगमे आगमनमनुज्ञातम्, तथा समुच्चयार्थः, शङ्का सन्देहो नूनं प्रत्यहमेवं ग ar satosमेताः करिष्यन्तीत्येवं मन्दमतिचिन्तनरूपा, पलिमन्थः स्वकाव्याघातः साधूनाम. तथा परम, दशवैकालिके समयप्रसिडे, अन्यदपरम् इदं वक्ष्यमाणम्, भणितमुक्तम, इति गाथार्थः ॥ तदेव लोकपञ्चकेनाह - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विभूसा इत्थिसंसग्गी पणीअं रसभोयणं । नरस्सत्तगवेसिस्स विसं तालउडं जहा ।। १५२ ।। जहा कुक्कुडपोयस्स निच्चं कुललओ भयं । एवं बंभयारिस्स इत्थीविग्गहओ भयं ।। १५३ ॥ हत्पापपछि कन्ननासविगुप्पियं । अवि वाससयं नारि बंभचारी विवज्जए ॥ १५४ ॥ अंगपच्चंगसंठाणं चारुल्ल वियपेहियं । इत्थीणं तं न निजाए कामरागविवड्ढणं ॥ १५५ ॥ चित्तभित्ति न निज्जाए नारिं वा सुअलंकियं । भक्खरं पिव दणं दिट्ठि पडिसमाहारे ।। १५६ ।। For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129