Book Title: Jivanushasanam
Author(s): Devsuri
Publisher: Jagjivan Uttamchand Shah
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लोयगहणंमि पक्खो सपकक्ख परपक्खयाण ओमाणं । गणभेए तत्तिल्लो सयणं दिवसस्स मज्झमि ॥ २० ॥ एसणसोहिं ण कुणइ अणेगसाहसुजेण । पन्नरस दोसा हवंति।
व्याख्या-मूत्रार्थपौरुषीशब्दस्योभयत्र सम्बन्धात् सूत्रपौरुषीमर्थपौ. रुषीं च यो 'नो' नैव 'करोति' विदधाति स पार्श्वस्थादिर्भवति, इत्येवं सर्वेष्वपि पदेषु सम्बन्धः कार्यः । कर्मरहितपदेषु च स्वयं सांगत्यं विधेयम् । एतच्च मूत्रार्थपौरुष्यकरणं ज्ञानतः सर्वपार्श्वस्थलक्षणम् । तथा चोक्तं निशीथे
" दुविहो खलु पासत्थो देसे सवे य होइ नायवो ।
सवे तिन्नि विगप्पा देसे सेजायरकुलाई ॥१॥ देशतः पार्श्वस्थस्य व्याख्या तद्गाथया--- " से जायरकुलनिस्सिय ठवणकुलपसोयणा अभिहडे य ।
पुवि पच्छा संथुयनियग्गभोई य पासत्थो ॥ १ ॥ ___ 'कुलनिस्सिया 'पयस्स वक्खाणं-तत्थ जाणि कुलाणि तस्स उवसमंति तेसु गामेसु वसति, अच्छइ, तेसि सथासाओ अहाराईणि उप्पाएइ ॥" व्यवहारेऽपीदमित्थमेव, शेषस्तु सुगममिति न लिखितम् । एस देसपासत्थो । " इयाणि सव्वपासत्थो तिविहभेओ भन्नइ, नाणगाहा
" देसणनाणचरित्ते सत्थो अच्छइ तहिं ण उजमइ ।
एएण उ पासत्थो एसो अन्नो विपजाओ ॥ सत्थो अच्छइत्ति सुत्तपोरिसिं वा अत्थपोरिसिंण करेइ, नोजमते, दंसणाइयारे सुवट्टइ, चरिते ण वट्टइ, अइयारे वा न वज्जइ, एवं सत्यो अच्छइ तेण 'पासत्यो' इत्यन्यः पर्यायः । अन्यदप्येवमादि तत्रोक्तं-अनेन च मूत्रार्थपौरुष्यकरणेन सर्वपार्श्वस्थत्वं भाषितं, दर्शनचारित्रे च प्रस्तावादुक्ते । भावार्थस्तु ज्ञानदर्शने सर्वपार्श्वस्थस्यापि भवतः, चारित्रं तु कस्यचिद् भवति कस्यचिनेति । व्यवहारे तु-" उसन्नो सज्झाए सुत्तपोरिसं अत्थपोरिसिं न करेइ, सब्बोसन्नो निकारणे संथारए सुवइ, एवं पीढफलगावि गृहति, लाति परपरिवादं, स्वव्यतिरिक्तविक
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