Book Title: Jindas Suguni Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Navalmalji Surajmalji Dhoka
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अश्चर्य पाया ऋषिराज ॥ भ०॥ ८॥ पर उपकारी तस तारवा जि । जाणी पुण्यवंत बुद्ध वंत ॥सरल सरस मधुरास थाजी । इणपर धर्म कहत ॥भ०॥ ९॥ लक्ष चौरासी ज्योंनी मे जी । दुर्लभ नरअवतार ॥ क्षेत्र आर्थ उत्तम कुलेजी । जन्न्या आयुष्य दीर्घ धारभ० |॥ १० ॥ इन्द्री पूर्ण धनवंत छोजी मिल्योनिग्रन्थ संजोग पहिवे धर्म जो नकरतो । पूरा| कर्म का भोग ॥ भ०॥ ११ ॥धर्म करते मानवीजी। नहीतो पशूथी नीपाट ॥ धर्मसगो भवर विषेजा । मेंटे दुःख आचाट ॥भ॥ १२ ॥वणीया की वणीवक्त छेजी स्वाधीन स-2 सक्त ॥ चिन्तमणी मिल्यो रांक नेजी। तिम मिले धर्म गुरू भक्त ॥ भ०॥ १३ ॥ धनकु IN टम्ब सहुकारमा जी । नलायो नलेजाय ॥ पूर्व करणा जिसा मिल्या जी। इहांकरेसा आ| गेपाय ॥भ०॥ १४ ॥ जण नाहीं कीनो गत भवेजी जिन परुप्यो धर्म। तेइणभवे अन्नधन्नीवनाजी । सहे दुःख बान्धे कर्म ॥ भ० ॥ १५ ॥ जेकरणी कर अवतर्याजी । उत्तम । कुलके मांय ॥ तेधर्मलाभ लेइ करीजी । आगे स्वर्ग मोक्ष जाय ॥ भ० ॥ १६ ॥ बालपणे धर्म नहीं ग्रहतो । वृद्धपणे सरमाय ॥ कोइक जो कधी आदरेतो । ज्ञान प्राप्त नथाय ॥भ० १७॥ धर्म ज्ञानी इण भवेजी । कूमार्गे नहीं जाय ॥ राजा पंच दंडेनहींजी। वल्लभ लाग सवाय ॥ भ० १८॥ पूर्णधर्म जो आदरतो । निश्चय मोक्ष पहोंचाय ॥ थोडो आराध्य ।

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