Book Title: Jindas Suguni Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Navalmalji Surajmalji Dhoka

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Page 33
________________ सुखदा उभय भव । न मेनत न खरची पाइ ॥ इण ॥ २० ॥ यह सहू बन्दोवस्त करो अपने घर । तो कहा सुण्या को सार थाइ ॥ इण ॥ २१ ॥ सेठ सुणी हर्ष्या घणा मनमें ।। राते वाली सेठाणी चेताइ ॥ इण ॥ २२ ॥ सर्व बंदोबस्त कियो निजघरमें । धर्मी | दम्पती देख हर्षाइ ॥ इण || २३ || प्राते उठ प्रतिक्रमण करने । सुगुणी रसोडा माहे आ इ ॥ इण ॥ २४ ॥ चूलो वरतन छाणा लाकडी । यत्ना से पूंजी ने जमाइ ॥ इण ॥ २५ ॥ आटो दाल शाक रख्या देखीने | जीवाणी की यत्ता कराइ ॥ इण ॥ २६ ॥ इत्यादि कर जावे वखाण में । इम नित्य सुखे काल गमाइ ॥ इण ॥ २७ ॥ जिनदास राइ प्रती क मण करके । नमे मात पिता भाइ भोजाइ ॥ इण ॥ २८ ॥ फिर तात की लइ अनुज्ञा । नित्य प्रत जावे बखाण मांइ ॥ इण ॥ २९ ॥ इस सुखे २ कालं गुजारे। धर्मी धर्म बड्या सुख पाइ ॥ इण ॥ २० ॥ अमोलखऋषि ढाल कही यह दशमीं । प्रथम खन्ड पूर्ण था | इ ॥ इ ॥ ३१ ॥ प्रथम खन्ड सार - वसंतिलक छन्द || दया मूल धर्म सर्व समेयमे बखाण्यो । गृहस्थाचार धर्म प्रथम खन्डे जाण्यो | धारो सुणी सुज्ञा रोती ए सारी । उभ य भव सदा यहहोय जय कारी ॥ २ ॥ इति प्रथम स्कन्ध धर्म प्रबन्ध रुप समाप्त ॥ १ मत

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