Book Title: Jindas Suguni Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Navalmalji Surajmalji Dhoka
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तीनी हाथ जोडया ॥ अहो वाई अपराध खेमो तुम । दुःख घणा दानाइ ॥ पुण्य ॥ | १८ ॥ तुमतो दोनों को भाग्यवंता । कमी कछू नाहीं ॥ पगले २ नवनिध थांके । स्वपन । फल्या ह्यांइ ॥ पुण्य ॥ १९ ॥ सुगुणी कहे थांके प्रशादे । संपत यह पाइ ॥ सास सुसरा को विजोग सुणी मुज। अंतर चीराइ ॥ पुण्य ॥ २० ॥ होणहार हुयो जो होणो । अब, चिन्ता न कांइ ॥ढाल तीसरी कहे अमोलख । अब पुण्य फल्याइ॥ पुण्य॥२१॥७॥ दुहा ॥ । दासीरचना ए देखके । मनमें अश्चर्य लाय॥ दोड गइ जिनदास पे। कानमें बात चेताय ॥ | १ ॥ तीन नारी नवी आइ को । बाइजीने भरमाय ॥ कने बेठ रोवेचहूं । सुण जिनदास । तीहां आय ॥ २ ॥ देवर आया देखके । हर्षी आदरे बतलाय ॥ भोजायां ने ओलखा। पूछे भाइ किहांय ॥ ३ ॥ ते कहे गया बजारमें । उद्र पूर्ण के काज ॥ हमने नीचे बेठाय के । तीनों गया पुर मांय ॥ ४ ॥ जिनदास कहे इण अबसरे । गडबड करणी नाय ॥युक्त -मा स्यूं हूं सह । राखणी लोक लज्जाय ॥५॥७॥ ढाल ४ चौथी ॥जय २ जिन त्रिभुवन धणी ॥यह०॥ पुण्य थकी सुख पामीये। पुण्य ऊचो जीवने लाय ॥ संगत भली पुण्य थामिले। होवेसह भणी सहाय॥ पुण्य ॥१॥ तिण असर तीनों जणां। फिरीया ग्राम के माय ॥ काम कहां मिलीयो नहीं। रीता फिर तिहां आय॥पुण्य॥२॥ लुगायां दीठी नहीं। घबराया ते वार॥

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