Book Title: Jindas Suguni Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Navalmalji Surajmalji Dhoka

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Page 114
________________ खण्ड ४ ५५ KISTRIBॐ दगा करीन चारी जीव तव । नारी गोत्र उपावे जी ॥ जे ॥ १७॥ तिहां थी आयु । पूरो करीने । करणी तणे प्रमाणे । ऊंचा नीचा देव उपना । आयु हीन बृध स्थाने जी ॥ जे ॥ १८ ॥ पहिला चवीया तीनो प्राणी । महंद पुरीने मझार ॥ सोहन शाहके घरेअवतर्या । अंबाय उदय ते वार हो ॥ जे ॥ १९ ॥ धन गमायो तातका घर को। दुःखीया।। हया अपार ॥ पाछे से वसुदत्त जीव चव । हुवा जिनदास कुंवार हो ॥ जे ॥ २० ॥ तीनो कपट तणे प्रभावें । बाध्यो थो नारी गोत ॥ ते आवड भावड जावड की। नारी तीनी होत हो ॥ जे ॥ २१ ॥ जसाधर चव तेही पुर में । कन्या हुइ शाह घेर ॥ पूर्व प्रेने वर्या जिनदाल जी। दाने पाया सुख सार हो ॥ जे ॥ २२ इम जाणी अंतराय बांयो । दान दे लेको लावो ॥ ढाल वसु में कहे अमोलख । दोनो भव सुख पावो जी ॥ जे ॥ २३ ॥ ॥ दुहा ॥ जिनदासदि आठही । और सभा का सर्व ॥ सुण सुपदेशनो। प्रत्यक्षे । तज्यो अंतर से गर्व ॥१॥ जिनदास के मन विषे। बडा चमत्कार ॥ अंतर जा मी पूछया विन । मुज संदेह दियोटार ॥ २ ॥ बंदणा कर जिनजी भणी । कहे नम्र कर जोड ॥ श्रध्या परतीत्या वयण में । फरसन की हुइ कोढ ॥ ३॥ ऋषिजी कहे देव । ५ वल्लभ । देर तणो नहीं काज ॥ भरोसो नहीं काल को । पार्योते करो आज ॥ ४ ॥

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